________________ अनेकान्त रूप वस्तु का जब कभी अभ्रान्त निर्वचन शब्दों में करना हो तो अपेक्षा भेद का द्योतक 'स्यात्' पद जोड़ना आवश्यक हो जाता है। इसीलिए इसका पारिभाषिक नाम है-'स्याद्वाद'। स्याद्वादका अर्थ है 'सापेक्षवाद' अर्थात् अमुक (एक) अपेक्षा से वस्तु अमुक (एक) प्रकार की है और अमुक (दूसरी) अपेक्षा से अमुक (द्वितीय) प्रकार की है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ शायद नहीं करना चाहिए अन्यथा सन्देहवाद का प्रसङ्ग आयेगा। वस्तुतः यह 'स्यात्' शब्द सापेक्षता का द्योतक है। यह दूसरी बात है कि हम अपनी दैनन्दिनी (बोलचाल) की भाषा में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि वहाँ वक्ता और श्रोता दोनों अपेक्षा भेद को समझते हैं। परन्तु जहाँ भ्रम होता है या भ्रम की सम्भावना रहती है वहाँ अपेक्षा भेद को बतलाना आवश्यक हो जाता है। इस तरह जब हम सबके विचारों का अपेक्षा भेद से विचार करेंगे तो देखेंगे कि सभी के विचार किसी न किसी अपेक्षा से सत्य हैं। जिसे यह अनेकान्त और स्याद्वाद की दृष्टि प्राप्त हो जाती है उसे कहीं भी (आचार अथवा विचार के क्षेत्र में) विचिकित्सा (सन्देह) नहीं होती है। यदि यह दृष्टि नहीं है तो पग पग पर विचिकित्सा होगी और कलह भी जिसके फलस्वरूप हम एक ही पक्ष का आग्रहपूर्ण पोषण करते हुए असत्य के पोषक बन जायेंगे। इस सन्दर्भ में एक घटना उदाहरणीय है- किसी चित्रकार ने एक ऐसा चित्र बनाया जो दाहिनी ओर से देखने पर 'नर' का था और वायीं ओर से देखने पर 'नारी' का। एक दिन उस चित्र को एक व्यक्ति दाहिनी ओर से देख रहा था और दूसरा बायीं ओर से। एक उसे 'नर' का और दूसरा उसे 'नारी' का चित्र बतला रहा था। दोनों एक दूसरे के दृष्टिकोण पर ध्यान दिए बिना आपस में लड़ने लगे। लड़ते लड़ते संयोग से दाहिनी ओर वाला व्यक्ति वायीं ओर और वायीं ओर वाला व्यक्ति दाहिनी ओर जाकर गिरा। इसके बाद जब उन्होंने पुनः चित्र को देखा तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और तब आपस में क्षमा मांगते हुए हमेशा विभिन्न पहलुओं से विचार करसे की प्रतिज्ञा की। यदि ऐसा न किया जाय तो प्रत्येक घर में सह अस्तित्त्व का भाव तो दूर रहा व्यर्थ के कलहों का अखाड़ा बन जाए। अतः हमारी दृष्टि प्रत्येक वस्तु के समस्त पहलुओं को समन्वित रूप से देखकर निर्णय करने वाली होनी चाहिए। महावीर काल में जो भी उपनियम बतलाए गए उनमें यदि आज की बदलती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर संशोधन एवं परिवर्तन नहीं किए गए तो एकान्त दृष्टि में आने वाले दोषों की उपस्थिति होगी। मूलाचार और उत्तराध्ययन सूत्र में इस तरह के संशोधन के उल्लेख भी मिलते हैं। वहाँ बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ के काल के जीव 'ऋजुजड़' (सरल परन्तु मन्दबुद्धि) होने से 'दुर्विशोध्य' (जिन्हें धर्माचार का ज्ञान कराना कठिन हो) थे, दूसरे से तेईसवें तीर्थङ्कर के काल के जीव 'ऋजुप्राज्ञ' (सरल तथा बुद्धिमान) होने से 'सुविशोध्य' और 'सुपालक' थे परन्तु चौबीसवें तीर्थकर महावीर के काल के जीव 'वक्रजड़' (कुटिल एवं मन्दबुद्धि) होने से 'दुरनुपालक' (कुतर्की होने से जिन्हें धर्माचरण में लगाना कठिन हो) थे। अत: भगवान् महावीर ने मूल सिद्धान्त का परिवर्तन न करते हुए तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा के कुछ उपनियमों आदि में कुछ - संशोधन जोड़े पुरिमी उज्जुजड्डा वक्कजडा य पच्छिमा। मज्झिमा उज्जुपन्ना उतेण धम्मे दुहा कए / / पुरिमाणं दुविसोज्झो उ चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोज्झो सुपालओ।। उत्तराध्ययन 23. 26. 27. आज का मानव 'वक्रजड़ तो है ही परन्तु उसकी विचारधारा और देशकाल की परिस्थितियां भगवान् महावीर के समय से काफी बदल चुकी हैं। आज इस वैज्ञानिक युग में हम प्रत्येक धार्मिक क्रियाओं को विज्ञान की कसौटी पर परखना चाहते हैं तथा वर्तमान जीवन में - ही उनका फल पाना चाहते हैं क्योंकि भौतिक विज्ञान की चकाचबन्ध से हमारी आँखें अध्यात्मिक विज्ञान की ओर देख ही नहीं पाती हैं। अतः आज बदली हुई इन परिस्थितियों में हमें धार्मिक नियमों की व्याख्या समाज व्यवस्था के रूप में करनी आवश्यक हो गई है। हम इस व्याख्या के द्वारा ही महावीर के मूल उपदेशों को जनजन के मानस पटल में और अचरण में उतार सकते हैं अन्यथा उनके सिद्धान्तों का व्याख्यान चिकने घड़े पर पानी डालने की तरह व्यर्थ सिद्ध होगा / भगवान् महावीर इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे। अत: उन्होंने साधु और गृहस्थ (श्रावक और श्राविका) के आचार में सिद्धान्तत: विरोध न होते हुए भी पर्याप्त अन्तर किया है। हम चाहें कि एकदम ऊपर की सीढ़ी पर पहुँच जाएँ ऐसा सम्भव नहीं है। हमें क्रमश: ही ऊपर की ओर उठना होगा। आज समाजव्यवस्था के अनुरूप धार्मिक नियमों का यदि हम पालन कर सके तो हम बहुत बड़े धार्मिक एवं महावीर के पदचिह्नों के अनुयायी होंगे। 233