________________ अन्यथा 'मुख में राम बगल में छुरी' की तरह हमारे धार्मिक कृत्य कोरे ढकोसला सिद्ध होंगे जिनसे न तो समाज का और न स्वयं को लाभ होगा। भगवान् महावीर का यह जीवन सन्देश जितना वैज्ञानिक, स्पष्ट तथा सादगी से पूर्ण है उतना अन्यत्र पाना दुर्लभ है। 'प्रत्येक आत्मा परमात्मा है' महावीर का यह सिद्धान्त बतलाता है कि न तो कोई ईश्वर का अवतार है और न उसकी अंश विशेष ही। न तो कोई बड़ा है और न छोटा ही। कोई किसी की कृपा से न तो ऊपर उठ सकता है और न नीचे ही गिर सकता है। प्रत्येक जीव - अपने पुरुषार्थ से अथवा कर्तव्यकर्म के अनुष्ठान से महापुरुष ही नहीं परमात्मा या तीर्थङ्कर बन सकता है। भक्त और भगवान् में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है, यदि कोई अन्तर है तो सिर्फ इतना कि भगवान् वीतरागी हैं और हम (भक्त-संसारी जीव) अवीतरागी (रागी-द्वेषी) हैं / कहा है-- मैं वह हूँ जो हैं भगवान् जो मैं हूँ वह हैं भगवान् / अन्तर यही ऊपरी जान वे विराग यहां राग वितान।। संसारस्थ आत्माएँ जो कि सूर्य सदृश तेजस्वी एवं प्रकाशस्वरूप हैं उनके ऊपर कर्मरूपी वादलों का पर्दा पड़ा है जबकि मुक्तात्माओं के ऊपर कोई आवरण नहीं है, वे अपने शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं। जब हमारे ऊपर से कर्मरूपी आवरण हट जायेगा तो हम भी पूर्ण मुक्त परमात्मा या तीर्थङ्कर बन जायेंगे। कर्मरूपी बादलों को हटाने के लिए हमें प्रबल वायु तुल्य सम्यग्दर्शन (सच्ची श्रद्धा) सम्यग्ज्ञान (सच्चा ज्ञान) और सम्यक्चारित्र (सदाचार) रूप रत्नत्रय का आश्रय लेना होगा। रत्नत्रय का आश्रय पाने के लिए हमें स्वयं अपनी आत्मा पर विजय पाना होगा क्योंकि रत्नत्रय स्वयं अपनी आत्मा में मौजूद है। अत: आत्मविजय को सबसे बड़ी विजय कहा गया है। आत्मा अपने उत्थान और पतन का स्वयं कर्ता और विकर्ता है, अच्छा मित्र और दुष्ट शत्रु है, वैतरणी नदी (एक नारकीय नदी जो दुःखकर है) और कूटशाल्मलि वृक्ष (दुःख देनेवाला पेड़) है, मामदुधा धेनु (गाय) और नन्दन (ये दोनों सुखकर) वन हैं अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेणू अप्पा मे नन्दणं वणं।। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टिओ सुपट्ठिओ।। उत्तराध्ययन सूत्र 20, 36-37 जब हम वर्तमान युग की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि आज मानव सभ्यता विनाशकारी अस्त्रों के निर्माण से विनाश के कगार पर खड़ी है, व्यक्ति से व्यक्ति का शोषण ही नहीं एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र का शोषण हो रहा है, विश्व अनेक शिबिरों में विभक्त होकर अपनी ही बात को पूर्ण सत्य मानने का आग्रही बन गया है, मानव हिंसा मनोरञ्जन का साधन हो चुकी है, अर्थसंग्रह (जमाखोरी) धार्मिक अनुष्ठान हो गया है, पक्षपात कर्तव्य कर्म बन गया है, घूसखोरी मेहनताना (मजदूरी) कहलाती है, व्यभिचार निरासक्ति का द्योतक है, धोखाधड़ी चतुरता (ऐन्द्रजालिक विद्या का अभ्यास) है, मिथ्या भाषण वाक्पटुता कहलाती है, चोरबाजारी कलाकौशल है, डकैती वीरत्व की निशानी है, पाकिटमारी हाथ की सफाई (जादू) है, भाई भतीजावाद समाजसेवा है, मिलावट आर्थिक विषमता का इलाज है, चापलूसी सेवाभक्ति है, ईमानदारी मूर्खता है, क्षमाभाव कायरता है, सत्यभाषण अव्यवहारिकता है, धार्मिकता अन्धविश्वास है, पातिव्रत्य समाजवाद का उपहास है। ऐसे समय में भगवान् महावीर का जीवनसन्देश जो कि आज से 2544 वर्ष पूर्व दिया गया था बहुत उपयोगी हो गया है। आवश्यकता आज केवल उसके बाह्य ढाँचे में युगानुरूप संशोधन एवं व्याख्यान करने की है। आज हमें उस सन्देश को धर्म विज्ञान या आध्यात्मिक विज्ञान के चश्मे से ही नहीं देखना है अपितु आधुनिक विज्ञान या समाजविज्ञान के चश्मे से भी देखना है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य (स्वदार सन्तोष) और अपरिग्रह रूप अणुव्रती समाज व्यवस्था से देश में व्याप्त हिसा, कलह, चोरबाजारी, डकैती, व्यभिचार, जमाखोरी, घूसखोरी आदि समस्त बुराईयों को दूर किया जा सकता है तथा समाजकल्याण, विश्वशान्ति आदि योजनाओं को सफल बनाया जा सकता है। अनेकान्त तथा स्याद्वाद की दृष्टि समस्त वैचारिक कलहों को दूर करके हमें सहनशील और गवेषी बनाकर न्यायवादी बना सकती है। अहिंसा का सिद्धान्त युद्धों और कलहों में आसक्त मानव जाति को शान्ति का वरदान दे सकता है। अपरिग्रह का व्यवहार सामाजिक जीवन की समस्त आर्थिक विषमताओं को दूर करके समता और सह अस्तित्त्व की स्थापना में सहयोग दे सकता है। इसी तरह 'प्रत्येक आत्मा परमात्मा है' यह उपदेश मानवजाति में व्याप्त कुण्ठा, धैर्य हीनता, उदासीनता आदि की हीन भावनाओं को दूर करने में तथा उत्साह, आत्मविश्वास, कर्तव्यनिष्ठा आदि की उच्च भावनाओं 234