________________ 7. भक्तिसंग्रह यह पूर्णतः भक्तिग्रन्थ होने से आदि से अन्त तक व्यवहारनयाश्रित है। जैसे-'तित्थयरा मे पसीयन्तु'36, 'आरोग्गणाणलाहं दिंतु समाहिं च मे बोधिं'37, 'सिद्धासिद्धिं मम दिसतु'38, 'दुक्खखयं दिंतु '39 'मंगलमत्थु मे णिच्चं '40, 'णिव्वाणस्स हु लद्धो तुम्हें पसाएण'41 'एयाण णमुक्कारा भवे भवे मम सुहे दिंतु 42 इत्यादि। ये कथन अपेक्षाभेद से सिद्धान्तविपरीत नहीं है। बाह्यरूप से देखने पर लगता है कि पूर्ण शुद्ध निश्चयनय का प्रतिपादन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ईश्वरकर्तृत्ववाचक व्यवहारपरक वाक्यों का प्रयोग कैसे कर सकते हैं? परन्तु निश्चय और व्यवहार के समन्वय के इच्छुक आचार्य के ये प्रयोग अनुपपन्न नहीं हैं, क्योंकि तटस्थ निमित्तकारणों को भक्तिवश यहाँ सक्रियनिमित्त कारणों के रूप में कहा गया है जो 'स्यात्' पद के प्रयोग से असङ्गत नहीं है। इस प्रकार ग्रन्थकार के सभी ग्रन्थों के अवलोकन से सिद्ध होता है कि उन्हें उभयनयों का समन्वय अभीष्ट है जो जिनमत के अनुकूल है। इसीलिए वे शुद्ध निश्चयनय से सिद्धादि के प्रति भक्तिभाव का निषेध करते हुए भी प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में कहीं कहीं मध्य और अन्त में भी, सिद्धादि के प्रति नमस्कार रूप भक्ति को प्रदर्शित करते हैं। भक्तिसंग्रह पूर्णतः भक्ति का पिटारा है। इसी प्रकार बाह्यलिङ्ग का निषेध करके भी उसका न केवल प्रतिपादन ही करते हैं अपितु स्वयं भी भावलिङ्ग को धारण भी करते हैं। शुद्ध निश्चय से संसारी और मुक्त आत्माओं को नियमासार में जन्म-जरादि रहित, सम्यक्त्वादि आठ गुणों से नय अलंकृत, अतीन्द्रिय, निर्मल, विशुद्ध और सिद्धस्वभावी कहा है। परन्तु क्या अपेक्षाभेद से इतना कहने मात्र से संसारी और मुक्त समान हो जायेंगे? ऐसा होने पर मुक्ति के लिए प्रयत्न हितोपदेशादि सब व्यर्थ हो जायेंगे। किञ्च वहीं परद्रव्य को हेय और स्व को उपादेय कहा है। क्या निश्चयनय से हेयोपादेय भाव बन सकता है? कभी नहीं सम्भव है। यह हेयोपादेय भाव व्यवहारनय से ही सम्भव है। अतः ग्रन्थकार के किसी एक कथन को उपादेय मानना एकान्तवाद को स्वीकार करना है जो स्याद्वादसिद्धान्त से मिथ्या है। जब तक समग्र दृष्टि से चिन्तन नहीं करेंगे तब तक ग्रन्थकार के मत का सही मूल्याङ्कन नहीं कर सकेंगे। ग्रन्थकार ने किन परिस्थितियों में किनके लिए निश्चयनय का उपदेश दिया है, यह ध्यान देने योग्य है। व्यवहार (अभूतार्थ) को हेय उन्होंने कभी नहीं कहा अपितु उसे ही पकड़कर बैठ जाने अथवा उसकी ओट में जीविका चलाने का निषेध किया है। आचार्य ने स्वयं 'समयसार के कर्तृकर्माधिकार के अन्त में दोनों नयों से अतिक्रान्त समयसार है किसी एक नयाश्रित नहीं' कहकर सारभूत अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट शब्दों में कहा है - जीवे कम्मं बद्धं पुटुं चेदि ववहारणयभणिदं / सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुटुं हवई कम्मं / / 141 / / कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं / पक्खातिवंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।। 142 / / सम्मद्दसणणाणं एवं लहदित्ति णवरि ववदेसं / सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।। 144 / / अर्थात् व्यवहार नय से जीव में कर्म बद्ध है परन्तु निश्चयनय से अबद्ध - स्पष्ट है। 'जीव में कर्म बँधे हैं अथवा नहीं बँधे हैं' ऐसा कथन नय पक्ष है परन्तु जो इससे दूर (पक्षातिक्रान्त) है वही समयसार है। जो शुद्ध आत्मा में प्रतिबद्ध है, दोनों नयों के कथन को केवल जानता है, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता है, वही पक्षातिक्रान्त है। जो सभी नयपक्षों से रहित है वही समयसार है। यह समयसार ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इस तरह आचार्य कुन्दकन्द के सभी ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय देखा जाता है जो जैन दर्शन के अनुकूल और युक्तिसङ्गत है। उपरोक्त विवेचना से यही निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहीं भी एकान्त का पोषण नहीं किया अपितु श्रावक एवं साधु की भूमिका के अनुसार ही व्यवहार तथा निश्चयनय सापेक्ष समन्वयात्मक दृष्टि से उपदेश किया है। यह आलेख उनके लिए विशेष पठनीय मननीय है जो कुन्दकुन्द आचार्य को निश्चयनय के पोषक घोषित करते हुए निश्चयनय की ध्वजा फहरा रहे हैं। सन्दर्भ सूची - 1. इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुर-विसदवक्काणं। 239