________________ (2) त्रिशरणयज्ञ- बुद्ध, धर्म और सङ्घ की शरण में जाना। यहाँ त्रिशरण से त्रिरत्न सम्यग्दर्शनादि करना। (3) शिक्षापदयज्ञ- यम-नियमों का ग्रहण करना। (4) शीलयज्ञ- पाँच शीलव्रतों को पालन करना। (5) प्रज्ञायज्ञ- अज्ञान का विनाश करके ज्ञानार्जन करना। (6) समाधियज्ञ- ध्यान द्वारा चित्तैकाग्र करके चित्तविशुद्धि करना। दीघनिकाय के कूटदन्त सुत्त में राजाओं और ब्राह्मणों के द्वारा करने योग्य यज्ञों का प्रतिपादन है। एक कूटदन्त ब्राह्मण 700 गायों, इतने ही बछड़ों एवं इतने ही अन्यान्य पशुओं द्वारा यज्ञ करना चाहता है तब प्रसङ्गवश भगवान् गौतमबुद्ध अहिंसामय आदर्शयज्ञ का प्रतिपादन करते हैं। इसी तरह कोसल संयुक्त निकाय में कोसल राजा पसेनादि भी 500 बैल, 500 बछियां, 500 बकरे, 500 मेढे आदि की बलि चढ़ाने के लिए यूपों से बँधवाते हैं तथा राजा के सेवक दण्ड के भय से आँखों में आँसू भरकर यज्ञ का काम करते हैं तब भगवान् इस प्रकार के यज्ञों का निषेध करते हैं। इस प्रकार के अहिंसा यज्ञों का सम्पादन महाराजा विजित और अशोक ने किया था। राजा अशोक का अहिंसा चक्र तो लोकविख्यात ही है। अध्यात्मयज्ञ या ज्ञानयज्ञ - अध्यात्मप्रधान होने से इसे अध्यात्मयज्ञ कहते हैं और ज्ञान की प्रधानता होने से ज्ञानयज्ञ कहते हैं। यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या करना तथा उसके द्रव्यमय स्वरूप को हटाकर 'ज्ञानमय' रूप देने की प्रवृत्ति का उदय ब्राह्मण युग में ही हो गया था। शतपथ ब्राह्मणों में हम यत्र-तत्र आध्यात्मिक अर्थों में यज्ञ प्रक्रिया की व्याख्या को देखते हैं। जैसेऐषा नु देवता दशपौर्णमासयोः सम्पत् अबाध्यात्मम्। -यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म, एष वै महान्देवो यद्यज्ञः, यज्ञो वै वृहत्विपश्चित्, यज्ञो वै ब्रह्म, संवत्सरो वै यज्ञः, आत्मा वै यज्ञः, पुरुषो वै यज्ञः आदि। आरण्यकों ने इस दिशा में गति प्रदान की और वानप्रस्थ मुनियों के लिए इस अध्यात्मयज्ञ का प्रतिपादन करते हुए इसे सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहा। धर्म के 10 प्रकार बतलाते हुए आरण्यक में कहा है - सत्यं तपश्च संतोषः क्षमा चारित्रमार्जवम्। श्रद्धा धृतिरहिंसा च संवरश्च तथा परः॥ अर्थ - सत्य, तप, संतोष, क्षमा, चारित्र, ऋजुता (आर्जव), श्रद्धा, धृति, अहिंसा तथा संवर-ये 10 धर्म के प्रकार हैं। इसके बाद उपनिषदों में तो इस प्रवृत्ति की गतिशीलता स्पष्ट और सुदृढ़ ही जाती है जो गीता में परिपूर्णता को प्राप्त कर लेती है। छान्दोग्य उपनिषद् के तृतीय अध्याय में मनुष्य को यज्ञ और मनुष्य के समस्त क्रियाकलापों को ही यज्ञ की विभिन्न अवस्थाओं का रूप दिया गया है। इसी तरह अन्य बृहदारण्यक, ऐतरेयारण्यक आदि उपनिषदों में यज्ञ को 'ज्ञान-यज्ञ' का रूप दिया गया है तथा जीवन की समस्त क्रियाओं को यज्ञरूप बताया है। जैसे - कौषीतकि (25) में अग्निहोत्र को प्राणायाम के रूप में, छान्दोग्य में (4/11-14) तीन प्रकार की अग्नियों को आत्मा के रूप में परिवर्तित कर दिया है। तैत्तिरीय (25) में ज्ञान को यज्ञ और कर्म दोनों ही कहा है (विज्ञानं यज्ञं तनुते कर्माणि तनुते च)। ऐसे अनेक स्थल उपनिषदों में वर्तमान हैं। जिनमें यज्ञ के द्रव्यमय बाह्यस्वरूप के स्थान पर ज्ञानमय आध्यात्मिक यज्ञ को प्रतिष्ठापना की है। इस अध्यात्म यज्ञ को वैदिक संस्कृति की प्रतीक गीता में कर्म-योगरूपी श्रेष्ठ यज्ञ कहा है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं (अ0 3, श्लोक 10 से 13)-हे अर्जुन ! मैं अग्निमुख में आहुतियाँ अर्पण करने को यज्ञ की आत्मा नहीं समझता, किन्तु परिश्रमपूर्वक उत्पन्न किए धनधान्यादि तथा अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को किसी विशिष्ट प्राणी को उद्दिष्ट करके ही नहीं वरन् संसार में जो कोई उसके क्षेत्र में आ जाय उन सबके हितार्थ भक्तिपूर्वक अर्पण करने को मैंने जीवन का कर्मयोगरूपी श्रेष्ठयज्ञ माना है। इस प्रकार करते हुए जो कुछ निर्वाहार्थ मिल सके उसे ही ईश्वर का अनुग्रह समझकर उपयोग करने को में यज्ञ को प्रसादी का उपयोग करता हूँ। इससे आत्मशुद्धि होती है। अत: यही यज्ञ की आत्मा है। इस तरह सभी भारतीय चिन्तकों ने वैदिक कर्मकाण्डी यज्ञ की व्याख्या -अध्यात्मपरक की है। यहाँ पर हम उत्तराध्ययन सूत्र के 25 वें यज्ञीय अध्ययन से एक प्रसङ्ग उद्भत करना चाहते हैं जिससे यज्ञ सम्बन्धी बहुत सी बातों का स्पष्टीकरण हो जावेगा। 200