________________ के अनुसार प्राथमिक संयम से, आनन्दरक्षित के अनुसार कार्मिकता से (सराग संयम और तप से) तथा काश्यप स्थविर के अनुसार सांगिकता (आसक्ति) से देवलोक में जीव उत्पन्न होते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) में महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण वाला धर्म कहा गया है। 4. आवश्यकनियुक्ति14- इसमें महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमणवाला तथा छेदोपस्थापना चारित्रवाला बतलाया गया है। 5. बृहत्कल्पसूत्रभाष्य'5- इसमें दस प्रकार के कल्पों की चर्चा करते हुए कहा है कि महावीर ने दस कल्पों की व्यवस्था दी थी। दस कल्प हैं- 1. अचेलता, 2. उच्छिष्टत्याग, 3. शय्यातर (आवास दाता), 4. पिण्डत्याग, 5. कृतिकर्म, 6. महाव्रत (चतुर्याम या पञ्चयाम),7. पुरुषज्येष्ठता, 8. प्रतिक्रमण, 9. मासकल्प और 10. वर्षावास (पर्युषणा)। इनमें से चार (3, 5, 6, 7) कल्प अवस्थित हैं और शेष छ- अनवस्थित (अर्थात् सभी तीर्थङ्करों के काल में नहीं होते हैं)। पार्श्व के समय चार कल्पों की व्यवस्था थी, जबकि महावीर के समय सभी 10 कल्पों की अनिवार्यता की गयी। इसके अतिरिक्त प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करों के धर्म को अचेलधर्म (तीर्थङ्कर असन्तचेल तथा अन्य सन्ताचेल) तथा मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के धर्म को अचेल अथवा सचेल दोनों कहा है। 6. राजप्रश्नीय"- इसमें पार्थापत्यीय केशीमुनि द्वारा श्वेताम्बिका के राजा प्रदेशी को उपदेश देने का उल्लेख है। 7. ऋषभाषित' - डॉ० सागरमल जैन का कथन है कि ऋषिभाषित में पार्श्व के उपदेशों के प्राचीनतम सन्दर्भ मिलते हैं। इस ग्रन्थ में पार्श्व के जिन उपदेशों का उल्लेख है, वे हैं- चातुर्याम, अचित्तभोजन, मोक्ष, लोक, जीव-पुद्गल की गति, कर्म, कर्म-फल-विपाक तथा कर्मफलविपाक से प्राप्त विविध गतियों में सङ्क्रमण। जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगामी और पुद्गल अधोगामी हैं। जीव कर्मप्रधान हैं और पुद्गल परिणामप्रधान / जीव में गति कर्मफलविपाक के कारण होती है और पुद्गल में गति परिणामविपाक (स्वाभाविक परिवर्तन) के कारण। जीव सुख-दुःख रूप वेदना का अनुभव करता है। प्राणातिपात-विरमण, कषायविरमण तथा मिथ्यादर्शन रूप शल्य-विरमण से ही जीव को शाश्वत सुख (मोक्ष) प्राप्त हो सकता है। मुक्त होने के बाद पुन: संसार में परिभ्रमण नहीं होता है। इसी ग्रन्थ में पाठभेद (गतिव्याकरण) के अनुसार निम्न धर्मों का उल्लेख मिलता है-- चातुर्याम धर्म, आठ प्रकार का कर्म, कर्मविपाक से नरकादि गतियों में गमन, प्राणातिपात से परिग्रहपर्यन्त पापकर्मों की गणना, पापकर्मों वाला व्यक्ति कभी भी न तो दुःखों से मुक्त हो सकता है और न मोक्ष प्राप्त कर सकता है, कर्मद्वार को रोकने से तथा चातुर्याम धर्म का पालन करने से शाश्वत सुख प्राप्त होता है, जीव स्वकृत कर्मफलों का भोक्ता है, परकृत कर्मफलों का भोक्ता नहीं है, जीव ऊर्ध्वगामी और पुद्गल अधोगामी स्वभाव वाला है, पापकर्मों से युक्त जीव अपने परिणामों (मनोभावों) से गति करता है और वह पुद्गल की गति में भी कारण होता है। जीव और पुद्गल दोनों ही गतिशील हैं। गति दो प्रकार की हैप्रयोगगति (पर-प्रेरित) और विस्रसागति (स्वतः)। इस तरह ऋषिभाषित में भगवान् पार्श्व के जिन सिद्धान्तों को बतलाया गया है, उनमें से चातुर्याम को छोड़कर शेष सभी सिद्धान्त महावीर के धर्म में भी मान्य हैं। 8. मूलाचार- दिगम्बराचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार में आया है कि महावीर के पूर्व के तीर्थङ्करों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया था तथा अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण को आवश्यक बतलाया था; परन्तु महावीर ने सामायिक संयम (धर्म) के साथ छेदोपस्थापना संयम की व्यवस्था दी और प्रतिदिन (अपराध हो चाहे न हो) प्रतिक्रमण करने का विधान किया। इस संशोधन का कारण मूलाचार में उत्तराध्ययनसूत्र की तरह ही बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव के काल के मनुष्य दुर्विशोध्य थे अर्थात् सरल तथा जड़ होने के कारण ये बार-बार समझाने पर भी ठीक तरह से नहीं समझ पाते थे। द्वितीय से लेकर तेईसवें तीर्थङ्कर के काल के मनुष्य सुविशोध्य (दृढ़बुद्धि प्रेक्षापूर्वचारी) थे अर्थात् सरल और प्रज्ञावाले थे जिससे उन्हें समझाना कठिन नहीं था, परन्तु महावीर के काल के मनुष्य दुरनुपाल्य थे अर्थात् जड़ थे तथा वक्रबुद्धि वाले थे जिससे उन्हें समझाना कठिन था। इस तरह यहाँ तीर्थङ्करकालीन मनुष्यों के स्वभाव का तो चित्रण है, परन्तु चातुर्याम-पञ्चयाम का तथा सचेल-अचेल धर्म की चर्चा नहीं है। 9. तिलोयपण्णत्ति1- इसके चतुर्थ महाधिकार में पार्श्व के जीवनवृत्त-सम्बन्धी सूचनाएँ मिलती हैं। यहाँ पार्श्वनाथ को उरगवंशी (नागवंशी) तथा कुमारकाल (अविवाहितावस्था) में दीक्षा लेने वाला बतलाया है। 10, तत्त्वार्थवार्तिक 22- दिगम्बराचार्य अकलङ्कदेव ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में निर्देश आदि का विधान करते हुए चारित्र के चार भेद भी बतलाए हैं- 'यमों के भेद से चारित्र के चार भेद हैं। षट्खण्डागम में भी 'पञ्चजम' का 208