________________ 4. पद्मपुराण 111.44-45, 112.76 5. पद्मपुराण 17.142-148, 151, 152, 154, 162, 307 6. पुरे हनिरुहे यस्माज्जातः संस्कारमाप्तवान् / हनूमानिति तेनागात्प्रसिद्धिं स महीतले। प.पु.17.403 / / चूर्णितश्च ततः शैलस्तेनासौ पतनात्तदा। श्रीशैल इति तेनासावस्माभिर्विस्मितैः स्तुतः / / प.पु. 18.122 // 7. वाल्मीकि रामायण के अनुसार ब्रह्मा का निर्देश पाकर अनेक देवताओं ने अप्सराओं, यक्षिणियों, नागकन्याओं, किन्नरियों, विद्याधरियों, वानरियों आदि के साथ सम्भोग करके हजारों पुत्र उत्पन्न किए। जैसे ब्रह्मा से जामवान्, सूर्य से सुग्रीव, विश्वकर्मा से नल, अग्नि से नील, वायु से हनुमान्। जैन कथानुसार देवताओं से वानरवंशियों की उत्पत्ति नहीं हुई। ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवता नहीं थे, अपितु तत्तत् नामधारी मनुष्य थे। वानर नाम से एक मानव जाति थी। जिन विद्याधर राजाओं का राजचिह्न वानर था वे वानरवंशी कहलाते थे / प. पु. 6.214, 84 87, 107-122 162-191, 182, 214 8. देखें, निर्वाणकाण्ड 8 9. कञ्चिल्लांगलपाशेन विद्यारचितमूर्तिना। प. पु. 19.54 10. प. पु. 16.166-213 11. प. पु. 17.391 12. प. पु. 49.1-3 13. प. पु. 49.113-116 14. प. पु. 53.202-204; 263-266 15. देखें, टि06 16. कैलासकम्पोऽपि समेत्य लङ्कां विधाय सम्मानमतिप्रधानम्। महाप्रभां चन्द्रमखातनूजां ददौ समीरप्रभवाय कन्याम्।। 101 17. विवाह सम्बन्धों के लिए देखें, प. पु. 19.102 पर्व 19 महावीर की दृष्टि में जाति, वेष, लिङ्ग आदि का कितना महत्त्व? सब प्रकार के कर्मबन्धनों से छुटकारा पाकर आत्मा का अपने शुद्धस्वरूप में प्रतिष्ठित होने का नाम 'निर्वाण', 'मोक्ष' या 'मुक्ति' है। इसीलिए इसे 'आत्मवसति' भी कहा गया है। इस अवस्था की प्राप्ति में आत्मबाह्य जाति (वर्ण), वेष, लिङ्ग, वय और सङ्घ आदि (शरीर आदि) का कितना महत्त्व है ? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि जाति आदि बाह्य अवस्थाएँ कर्मजनित (नाम, गोत्र और आयु कर्म के प्रभाव से उत्पन्न) हैं। अत: निर्वाण लाभ की दृष्टि से निश्चयनय से इनका कोई महत्त्व नहीं है। व्यवहारनय से कथञ्चित् महत्त्व है। इतना अवश्य है कि उत्तम जाति, वेष, लिङ्ग आदि निर्वाणलाभ के लिए सहायक हैं, अनिवार्य निश्चियनय से नहीं। भगवान् महावीर ने प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा का दर्शन किया। जाति आदि के भेद से उसमें जो भेद दिखलाई दिया, उसे औपाधिक भेद या बाह्यभेद या व्यावहारिक भेद के नाम से अभिहित किया। यह औपाधिक भेद परमार्थ के प्रति अकिञ्चित्कर है। अतः आगमग्रन्थों में बाह्य लिङ्ग आदि की अपेक्षा आभ्यन्तरिक शुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है और आभ्यन्तरिक शुद्धि के अभाव में बाह्यशुद्धि की निन्दा करते हुए उसे नि:सार बतलाया है। बाह्यलिङ्गादि मात्र तो बाह्यरूपादि के परिचायक हैं, कार्यसाधक नहीं। जाति (वर्ण) उत्तराध्ययन सूत्र में जन्मना जातिवाद का खण्डन करते हुए स्पष्ट कहा है - कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही जीव शूद्र होता है। कोई जाति विशेष नहीं है। केवल सिर मुडाने से श्रमण, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मुनि और कुशा आदि धारण करने से तपस्वी नहीं हो जाता; अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप करने से तपस्वी होता है। इसी तरह आदिपुराण में भी कहा है-जातिनामकर्म 224