________________ 20 108 10 तो आत्मा के अपने परिणामों पर निर्भर है। श्वेताम्बरों के उत्तराध्ययन सूत्र में एक समय में मुक्त होने वाले जीवों की गणना के प्रसङ्ग में विभिन्न स्थानों, विभिन्न धर्मावलम्बियों एवं विभिन्न लिङ्गवालों की पृथक् पृथक् संख्या गिनाई गई है / जैसेमुक्त होनेवाले जीव अधिकतम संख्या मुक्त होनेवाले जीव अधिकतम संख्या पुरुष 108 शरीर की सबसे कम अवगाहना वाले स्त्री मध्यम अवगाहना नपुंसक ऊर्ध्वलोक से जैनसाधु (स्वलिङ्गी) 108 मध्यलोक से अजैनसाधु (अन्यलिङ्गी) अधोलोक से गृहस्थ 4 नदी आदि जलाशयों से शरीर की सर्वाधिक अवगाहना वाले 2 समुद्र से यहाँ संख्या की हीनाधिकता से इतना सुस्पष्ट होता है कि किनमें क्षमता अधिक है और किनमें कम, किन्हें आत्मशोधन के अवसर अधिक हैं और किन्हें कम। ऊर्ध्वलोकादि से मुक्ति विद्याधरों के द्वारा अपहरण करने की स्थिति में बनती है। उपसंहार इन सभी तथ्यों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि सदाचार-पालन करने की सामर्थ्य वाला प्रत्येक व्यक्ति जो संसार के विषयों से विरक्त होकर मुक्ति की अभिलाषा रखता है; चाहे वह किसी भी जाति, लिङ्ग, वय का क्यों न हो, निर्वाणप्राप्ति का अधिकारी है। संसार के विषय भोगों में आसक्त व्यक्ति श्रेष्ठ जाति तथा कुल में उत्पन्न होकर भी मुक्ति के अयोग्य है। जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती। कुलक्रमागत संस्कारों के कारण निम्नजाति में उत्पन्न होने पर धर्म-साधना के अवसर प्रायः नहीं मिल पाते हैं; जबकि उच्चजाति में प्रायः सुलभ होते हैं। इस तरह मुक्ति के प्रति कर्मजनित जाति आदि के अकिञ्चित्कर होने अथवा आवश्यक अङ्ग न होने पर भी इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि उच्चजाति आदि निर्वाणलाभ की दृष्टि से सहायक अवश्य हैं। दूसरे शब्दों में निश्चयनय से जाति आदि का कोई महत्त्व नहीं है; परन्तु व्यवहारनय से महत्त्व है। अन्यथा 'प्रत्येक आत्मा परमात्मा है, यह सिद्धान्त ठीक से पल्लवित न हो सकेगा। स्त्री आदि की मुक्ति का समाधान जन्मान्तर से संभव है। सन्दर्भ सूची - 1. अप्पणो वसहि वए। उत्तराध्ययन सूत्र 14-48 2. वेदान्त दर्शन में भी प्रत्येक आत्मा परमात्मा है; परन्तु वहाँ एक ब्रह्म ही विवर्ताकार नाना रूपों में दिखलाई पड़ता है। वहाँ मुक्तावस्था में जीवात्मा की परमात्मा ( ब्रह्म ) से भिन्न स्थिति नहीं रहती है, जबकि जैनधर्म में जीवात्मा की परमात्मा से स्वतन्त्र इकाई है, जो मुक्तावस्था में भी बराबर बनी रहती है। 3. जं मग्गहा बहिरियं विसोहि न तं सुइट्ठ कुसला बयंति। 30.12-38 / तथा देखिए मेरा शोध-प्रबन्ध उत्तराध्ययन सूत्र-एक परिशीलन, पृ0 238-239 4. कम्मुणो बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ।। वईसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा / उ0 25/33 5. न दीसई जाइविसेस कोइ। 3 12/37 6. न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो। उ015/31-32 7. ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात्। वणिजोऽर्थार्जनान्यायाच्छूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् / / 38/46 8. व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः। 11/20 226