________________ के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्यजाति एक है, यदि उसके चार भेद माने जाते हैं तो वह केवल व्यवहार से आजीविका के कारण। जैसे-व्रत स्वीकार करने से ब्राह्मण, आजीविका के लिए शस्त्रधारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करने से वैश्य और सेवावृत्ति स्वीकार करने से शूद्र। पद्मचरित में आचार्य रविसेन ने कहा है - 'व्रतों में स्थित चाण्डाल को देवगण ब्राह्मण जानते हैं।' हरिकेशबल मुनि ने शूद्र होकर भी जैनजगत् में बड़ी ख्याति प्राप्त की थी। सागारधर्मामृत में पं0 आशाधरजी ने लिखा है-"उपकरण, आचार और शरीर की पवित्रता से युक्त शूद्र भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान जैनधर्म धारण करने का अधिकारी है, क्योंकि जाति से हीन भी आत्मा कालादि लब्धि के आने पर श्रावकधर्म की आराधना करने वाला होता है। इस तरह के अनेक उल्लेख जैन" तथा अजैन ग्रन्थों में मिलेंगे जिनसे स्पष्ट है कि जाति 'निर्वाण' प्राप्ति में प्रतिबन्धक नहीं है। यदि ब्राह्मण जघन्य कार्यों को करता है तो वह सच्चा ब्राह्मण नहीं है और निन्द्यकार्य करने वाला साधु सच्चा साधु नहीं है क्योंकि बाह्यशुद्धि की अपेक्षा अन्तरङ्ग की शुद्धि एवं सत्कार्यों से ही व्यक्ति महान् होता है। अच्छी जाति में जन्म होने से जातिगत अच्छे संस्कार पैदा होते हैं, जिससे व्यक्ति निर्वाण की ओर द्रुतगति से बढ़ सकता है। निर्वाण लाभ उसी भव में न भी मिले परन्तु उस मार्ग पर चलकर अगले भवों में प्राप्त कर सकता है। ऐसा ही वेष आदि के विषय में जानना चाहिए। वेष - उत्तराध्ययन सूत्र के केशि-गौतमीय संवाद में इस सन्दर्भ में स्पष्ट कहा है - 'विज्ञान से जान कर धर्म-साधनभूत उपकरणों की आज्ञा दी जाती है, बाह्यलिङ्ग (चिह्न, वेष आदि) तो लोक में मात्र प्रतीति कराते हैं कि अमुक साधु है, परन्तु मोक्ष के प्रति सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर भगवान महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा उपदिष्ट साधु के वस्त्रसम्बन्धी विधान में परिवर्तन किया। मोक्षार्थी चाहे 'सचेल' हो या 'अचेल' पीतवस्त्रधारी हो या श्वेतवस्त्रधारी इससे निर्वाण-प्राप्ति में प्रतिबन्धकता नहीं आती है। यदि मोक्षार्थी जल से भिन्न कमल की तरह निर्विकारभाव से वस्त्रादि धारण करता है तो, नहीं धारण किए हुए की तरह है और यदि वस्त्रादि के प्रति आसक्त है, मूर्छावान् है तो वस्त्रधारण न करके भी वस्त्रधारी के तुल्य है / हाँ ! इतना अवश्य है कि वेष यदि विकार पैदा न करने वाला हो तो वह निर्वाणप्राप्ति में अधिक सहायक होता है। दिगम्बर परम्परा में मुनि को नग्नवेश आवश्यक है। लिङ्ग दिगम्बर-परम्परा में साक्षात मुक्ति का अधिकारी केवल पुरुष को ही बतलाया गया है। जबकि श्वेताम्बर-परम्परा में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। ऐसा भेद होने पर भी दिगम्बर-परम्परा में स्त्री को दीक्षा लेने की अधिकारिणी बतलाया गया है, जिससे उसके लिए भी जन्मान्तर में मुक्ति का द्वार खुल जाता है / वस्तुतः मुक्तिप्राप्ति के समय तो व्यक्ति निर्वेद (पुरुष, स्त्री तथा नपुंसक के वेद से रहित) होता है। राजीमती आदि उदात्त चरित्रवाली नारियों के जैन साहित्य में विपुल प्रमाण हैं। जिन्होंने स्वयं के लिए तो मुक्ति का पथ खोला ही, साथ ही भटके हुए पुरुषों को भी मुक्ति की ओर अग्रसर किया। वय अवस्था भी मुक्ति के लिए प्रतिबन्धक नहीं है। शास्त्रों में इतना अवश्य है कि 8 वर्ष की उम्र के बाद मनुष्य दीक्षा ले सकता है। उसके पश्चात् एक वर्ष की अवधि बीतने पर शुक्ललेश्या का अधिकारी होता है। इससे प्रमाणित होता है कि इस अवस्था तक व्यक्ति की धर्माराधना में सहायक शारीरिक शक्तियाँ कर्म के प्रभाव से पूर्ण विकसित नहीं हो पाती हैं। मुक्ति का द्वार तो सर्वदा सभी के लिए खुला रहता है। गजसुकुमार, अतिमुक्तक, आदि बाल्यवय में, भृगुपुरोहित के दोनों पुत्र, अनाथी, मृगापुत्र आदि युवावस्था में, भृगुपुरोहित, उसकी पत्नी, इषुकार राजा तथा उसकी पत्नी आदि युवावस्था के बाद दीक्षा लेते हैं। अरिष्टनेमि और राजीमती विवाह की मङ्गलवेला में दीक्षा ले कर निर्वाणलाभ करते हैं। दिगम्बर परम्परा में राजीमती के तद्भव निर्वाण की बात नहीं है। सङ्घ सङ्घ कई तरह के होते हैं। जैसे-जैनसङ्घ, साधुसङ्घ, साध्वीसङ्घ, श्रावकसङ्घ श्रविका सङ्घ, दिगम्बरसङ्घ श्वेताम्बरसङ्घ आदि। जाति, वेष आदि की तरह ही सङ्घ की भी स्थिति है। इतना अवश्य है कि सत्सङ्घ होने से आत्मशोधन का अधिक अवसर मिलता है और असत्सङ्घ होने से आत्मशोधन की संभावनाएँ कम होती हैं। अतः सर्वत्र सत्सङ्गति का विधान किया गया है। परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि सत्सङ्ग के न मिलने पर मुक्ति नहीं मिलेगी। यह 225