________________ राम-हनू-सुग्गीओ-गवय-गवाक्खो य जीय-महणीलो। णवणवदीकोड़ीओ तुङ्गीगिरी णिव्वुदे वंदे।।8।। हनुमान् के छः पूर्वभव और उनके जन्म की घटना। हनुमान् अपने पूर्वभव में लान्तव स्वर्ग में देव थे। वहाँ के भोगों को भोगने के बाद उन्होंने इस मनुष्य लोक में जन्म लिया। लान्तव स्वर्ग के देव से भी पूर्ववर्ती क्रमश: भव थे-सिंहवाहन राजपुत्र, स्वर्ग में देव, सिंहचन्द्र राजपुत्र, स्वर्ग में देव, दमयन्त राजपुत्र / ये हनुमान् के छ: पूर्वभव हैं। इनमें तीन स्वर्गलोक सम्बन्धी हैं और तीन मनुष्य लोक सम्बन्धी। वर्तमान भव में हनुमान के पिता थे पवनञ्जय जो विजयार्थ पर्वत के दक्षिणभाग में स्थित आदित्यपुर के राजा प्रह्लाद तथा उनकी धर्मपत्नी केतुमती रानी के पुत्र थे। पवनञ्जय धर्मप्रिय राजा थे तथा उनका विवाह महेन्द्रपुर के राजा महेन्द्र की कन्या अञ्जनासुन्दरी से हुआ था, परन्तु पापकर्मोदय से 22 वर्ष तक दोनों का मेल नहीं हो सका। पवनञ्जय यद्यपि अञ्जना के सौन्दर्य पर मुग्ध थे, किन्तु अञ्जना की सखि द्वारा अपनी निन्दा सुनकर अञ्जना से रुष्ट हो जाते हैं और विवाह हो जाने पर भी उसके पास नहीं जाते हैं। पवनञ्जय की इस कठोरता और अञ्जना की सहनशीलता को देखकर सभी आश्चर्य करते हैं। एक समय युद्ध में रावण की सहायतार्थ पवनञ्जय युद्ध क्षेत्र में जाते हैं। नदी तट पर सैन्य शिविर ठहरता है। वहाँ चकवा के वियोग में चकवी के असह्य विलाप को देखकर पवनञ्जय को अञ्जना की स्मृति हो जाती है। वे सोचने लगते हैं के रात्रि के वियोग में चकवी की यदि यह पीड़ा है तो निर्दोष अञ्जना की क्या स्थिति होगी।' बस क्या था, सेना को वहीं छोड़, रात्रि में ही अञ्जना के पास पहुँच जाते हैं। रात्रि विश्राम के बाद पवनञ्जय प्रभात होने से पूर्व ही बिना किसी से कुछ कहे-सुने सेना के शिविर में वापिस चले जाते हैं। इधर पति मिलन के फलस्वरूप अञ्जना गर्भवती हो जाती है। जब गर्भ के लक्षण प्रकट होते हैं तो उसे कलङ्किनी समझ घर से बाहर निकाल दिया जाता है। दर-दर भटकती हुई अञ्जना निर्जन वन की एक गुफा में विराजमान दिगम्बर वीतरागी मुनि के पास पहुँचती है। उनके मुख से तद्भव मोक्षगामी कामदेव हनुमान् को गर्भ में जानकर अञ्जना प्रसन्न होती है तथा शुभ मुहूर्त में एक पुत्र को जन्म देती है। इसी समय आकाशमार्ग से जाते हुए राजा प्रतिसूर्य जब नारी की चीत्कार सुनते हैं तो अपने विमान को नीचे उतारते हैं। परस्पर परिचय से ज्ञात होता है कि राजा प्रतिसूर्य अञ्जना के मामा हैं। मामा के अनुरोध पर अञ्जना पुत्र के साथ विमान पर बैठकर जब आकाशमार्ग से मामा के घर हनुरूह द्वीप जा रही होती है, तभी पुत्र हनुमान् बालचाञ्चल्य के कारण विमान से नीचे एक विशाल शिला पर गिर पड़ते हैं, परन्तु हनुमान् को जरा भी चोट नहीं लगती है, अपितु जिस शिला पर वे गिरते हैं वह शिला चकनाचूर हो जाती है और पुत्र एक शिलाखण्ड पर सुखपूर्वक खेलने लगते हैं। पश्चात् अञ्जना सहित सभी हनुरूह द्वीप जाते हैं। हनुरूह द्वीप पहुँचकर बालक का जन्मोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है और उसके संस्कार किए जाते हैं। इधर युद्ध में विजयप्राप्ति के बाद जब पवनञ्जय घर वापिस आते हैं तो अञ्जना के मृषा अपवाद की घटना को जानकर बहुत दुखी होते हैं तथा उन्मत्त की तरह जंगलों में भटकते हुए एक दिन हनुरूह द्वीप पहुँचते हैं। पुण्योदय से अपनी पत्नी अञ्जना और पुत्र हनुमान् को पाकर अतीव प्रसन्न होते हैं, पश्चात् दोनों को साथ लेकर आदित्यपुर आ जाते हैं। हनुमान् नामकरण का हेतु हनुरूह द्वीप में जन्म-संस्कार की क्रियायें होने से इनका नाम 'हनुमान्' रखा जाता है तथा शिला को चूर्ण-चूर्ण करने के कारण 'श्रीशैल' नाम प्रसिद्ध होता है। पवनञ्जय के औरस पुत्र होने से 'पवनसुत' तथा अञ्जनापुत्र होने से 'आंजनेय' भी प्रसिद्धि को प्राप्त होते हैं। इस कथानक से यह भी सिद्ध है कि ये विद्याधर जाति के मनुष्य थे बन्दर नहीं। ये अञ्जना और पवनञ्जय के औरस पुत्र थे, वायु देवता से इनकी उत्पत्ति नहीं हुई थी। वानरवंश नामकरण का हेतु स्वयम्भूदेव के पउमचरिउ में वर्णन आता है कि अयोध्या के सगर चक्रवर्ती राजा ने अपने पुत्र भगीरथ को राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली। सगर के बाद 64वीं पीढ़ी में कीर्तिधवल अयोध्या के राजा बने। एक बार उनका साला श्रीकण्ठ सपत्नीक उनके यहाँ आया। कीर्तिधवल ने प्रसन्न होकर उसे वानरद्वीप उपहारस्वरूप दिया। श्रीकण्ठ ने पहाड़ी पर किष्कपुर बसाया। पश्चात् वहाँ के राजा अमरप्रभ हुए। उन्होंने लङ्का की राजकुमारी से विवाह किया। नववधू जब ससुराल 222