________________ पीड़ित (ग्लान) है वह अपने योग्य शक्त्यनुसार वैसी चर्या का आचरण करे जिससे मूल संयम का घात (छेद) न हो। मुनि देश, काल, श्रम, सहनशक्ति और शरीररूप उपधि को जानकर यदि आहार या विहार में प्रवृत्ति करता है तो वह अल्प कर्मों से बँधता है, अन्यथा देश, कालादि का विचार किये बिना आचरण करने पर बहुत कर्मबन्ध करता है। इससे स्पष्ट है कि अवस्था (बाल, वृद्ध, अमित, गिलान) का विचार करते हुए तथा देश-कालादि का विचार करते हुए ही मुनि को आहारादि में प्रवृत्ति करना चाहिए। शक्ति का विचार किए बिना यदि अति तप किया जायेगा तो वह उसी प्रकार चरमरा जायेगा जैसे क्षमता से अधिक भार लादने पर बैलगाड़ी। इसी प्रकार शक्त्यनुसार तपादि न करने पर उपयोगहीन लोहे की मशीनरी के समान जंग लगने से विनाश। अतः दोनों का समन्वय आवश्यक है। यहाँ इतना विशेष है कि साधु को भोजन में, उपवास में, गुहादि-निवास स्थान में (आवसय = वस्तिका में ) विहार में, शरीर के परिग्रह में, सहवर्ती मुनियों में और विकथाओं में ममत्वभाव (णिबद्ध) नहीं रखना चाहिए। सर्वदा प्रमादरहित होना चाहिए क्योंकि प्रमादपूर्वक प्रवृत्ति से मुनिपद का भङ्ग तथा हिंसादि का दोष होता है। जैसा कि कहा है - भत्ते वा खवणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्मि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्मि विकधम्मि।। प्रव0 3.15 अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु। समणस्स सव्वकालं हिंसा सा सततत्ति मदा।। प्रव0 3.16 अपवादमार्गी मुनि के कमण्डलु आदि उपकरण उत्सर्गमार्गों के नहीं - देश और काल के दोष से अल्पशक्ति होने पर परमोपेक्षारूप संयम-धारण की शक्ति न होने पर आहार-विहार आदि क्रियाओं के लिए संयमपालन में सहायक अपवादमार्ग से ग्राह्य साधु के उपकरण बतलाते हुए कहा है (1) जो अप्रतिक्रुष्ट (अनिन्दित हिंसादि उपायों से अजन्य या हिंसादि के अजनक) हों, (2) असंयमी मनुष्य जिसे प्राप्त न करना चाहते हों, (3) ममत्व के अजनक हों तथा (4) अल्प हों। इस सिद्धान्तानुसार दिगम्बर जैन मुनि के उपकरण निम्न बतलाए हैं-(1) शारीरिक शुद्धि के लिए एक कमण्डलु जो लकड़ी का बना हो; धातु या चर्मादि का बना न हो, (2) जीवों का विघात रोकने के लिए एक मयूरपिच्छ, (3) उपयोग की स्थिरता एवं ज्ञानवृद्धि के लिए एक या दो शास्त्र। उत्सर्ग मार्ग से ये उपकरण यद्यपि परिग्रह हैं परन्तु अल्पशक्तिधारक मुनियों का इनके बिना निर्वाह नहीं हो सकता है। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने अपवाद रूप में इनके ग्रहण का विधान किया है। साधु को इनमें ममत्व नहीं होना चाहिए। ये संख्या में न तो अधिक (एकाधिक) होना चाहिए और न संयमविघातक होना चाहिए। यथार्थ में मुनि के 4 उपकरण हैं-(1) यथाजातरूप (निर्ग्रन्थमुद्रा दिगम्बर मुद्रा), (2) गुरुवचन (तदनुसार प्रवृत्ति), (3) विनय (गुरु विनय) और (4) शास्त्राध्ययन। ये चारों ही शरीराश्रित हैं अतः परिग्रह रूप हैं और अन्त में त्याज्य भी हैं। उत्सर्ग मार्ग में इनकी आवश्यकता नहीं होती। यद्यपि उत्सर्गधर्म वस्तुधर्म है परन्तु वह अन्तिमावस्था = कैवल्यावस्था है। युक्ताहारी मुनि निराहारी कैसे ?-आकांक्षा और कषायरहित मुनि को युक्ताहारी (योग्य आहारी) होना चाहिए। युक्ताहार है- (1) एक बार भोजन (2) अपूर्ण उदर भोजन (स्वल्पाहार), (3) यथालब्ध (जैसा भी सरस या नीरस मिले वैसा) भोजन, (4) भिक्षा-वत्ति से प्राप्त भोजन, (5) रस की इच्छा से रहित भोजन तथा (6) मधुमांसादि से रहित भोजन। जैसा कि कहा है - एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जधा लद्धं। चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खंण मधुमंसं।। प्रव0 3.29 केवल शरीर रूप परिग्रह से युक्त परन्तु शरीर में ममत्व से रहित तथा शक्ति को न छुपाते हुए तपाभिलाषी एषणा दोष से रहित निर्दोष अन्न की भिक्षा लेने वाले मुनि आहार ग्रहण करते हुए भी निराहारी हैं क्योंकि उसका आत्मा परद्रव्य का ग्रहण न करने से निराहार स्वभावी हैं तथा एषणादोषशून्य भिक्षा वाला है। जैसा कि अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार 3.27 गाथा की टीका में कहा है 'स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्यभेक्ष्यत्वाच्च युक्ताहारः साक्षादनाहारः एव स्यात् / आO कुन्दकुन्द ने भी कहा है - जस्स अणेसणमप्पा तंपि तओ तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा।। केवलदेहो समणो देहे ण ममेत्तिरहिदपरम्मो। आउत्तो तं तवसा अणिगृहं अप्पणो सत्तिं / / प्रव0 227-228 220