________________ आहार-विहारादि में उत्सर्ग-अपवाद मार्ग का समन्वय (आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में) [ उत्सर्गमार्ग - शुद्धोपयोगी मार्ग तथा अपवाद मार्ग - देश, कालादि की परिस्थितिजन्य शुभोपयोगी मार्ग दोनों ही सम्यक् हैं। अपवादमार्ग शिथिलाचार या स्वेच्छाचार नहीं है] आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने सभी ग्रन्थों में सर्वत्र जैनधर्म के प्राणभूत स्याद्वादसिद्धान्तानुसार सापेक्षवाद या समन्वयवाद का प्रतिपादन किया है। कहीं भी वे एकान्तवाद का प्रतिपादन नहीं करते। प्रवचनसार में मुनि के आहारविहार का प्रतिपादन करते हुए आचार्य उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का समन्वय ही श्रेयस्कर बतलाते हैं। उत्सर्गनिरपेक्ष अपवादमार्ग और अपवादनिरपेक्ष उत्सर्गमार्ग श्रेयस्कर नहीं है। इसी बात का समर्थन करते हुए प्रवचनसार गाथा 231 की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्दजी लिखते हैं-'तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः / तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः।' उत्सर्ग-अपवाद मार्ग (1) उत्सर्ग मार्ग - शुद्धात्मा से भिन्न सभी बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग (ममत्व त्याग) उत्सर्ग मार्ग है। निश्चय नय से यही मुनिधर्म है। इसे ही सर्वपरित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग आदि नामों से भी कहा जाता है। वास्तव में केवली ही इस मार्ग के सच्चे अनुयायी हैं। इसमें न किसी का त्याग होता है और न ग्रहण; यह तो शुद्धात्मा की स्वरूपस्थिति है। यहाँ भूख-प्यास कुछ भी नहीं रहती, अतः तदर्थ उसके ग्रहण का कोई प्रयोजन भी नहीं रहता। (2) अपवाद मार्ग- शुद्ध आत्मा की भावना के सहकारी प्रासुक आहार, ज्ञानोपकरण शास्त्र आदि का ग्रहण करना अपवाद मार्ग है। व्यवहारनय से यही मुनिधर्म है। इसे ही एकदेश परित्याग, अपहृत-संयम, सराग चारित्र, शुभोपयोग आदि नामों से भी कहा है। यह मार्ग उनके लिए है जो हीन शक्तिवाले होने से शुद्धात्मा में निश्चय से ठहरने में असमर्थ हैं परन्तु उस मार्ग को प्राप्त करना चाहते हैं। अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग मार्ग-शुद्धात्मा की भावना के निमित्त सर्वपरित्यागरूप उत्सर्ग मार्ग के कठिन चरण में विचरता हुआ मुनि जब मूल संयम के साधक मूल शरीर के विनाश को रोकने के लिए प्रासुक आहारादि का ग्रहण करता है तो वह अपवादसापेक्ष उत्सर्गमार्ग का आश्रय लेता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि शरीर संयम साधना में सहायक होने से सर्वथा हेय या निन्दनीय नहीं है। उस में आसक्ति ही निन्दनीय है। उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद मार्ग- जब कोई मुनि अपहृत संयम के मार्ग में विचरता हुआ भी शुद्धात्म तत्त्व साधक मूलभूत संयम की तथा संयम साधक मूलभूत शरीर की रक्षा करता हुआ विचरता है तो उसे उत्सर्गसापेक्ष अपवादमार्ग कहते हैं। केवल उत्सर्ग मार्ग श्रेयस्कर नहीं-'आहार ग्रहण करने पर कुछ न कुछ कर्मबन्ध अवश्य होता है इस भय से उत्सर्गमार्गी मुनि जब कठोर तपस्या के द्वारा असमय में ही संयम साधक शरीर को विनाश कर देता है तो वह तपस्या के फलस्वरूप देवपर्याय में पहुँचकर असंयमी हो जाता है। वहाँ देव पर्याय में संयमाभाव होने से उसे अधिक कर्मबन्ध होने लगता है। अत: अपवाद मार्ग का विरोध कर मात्र उत्सर्ग मार्ग अपनाना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। केवल अपवाद मार्ग श्रेयस्कर नहीं - जब कोई शिथिलाचारी अपवादमार्गी मुनि आहार विहार करते हुए शुद्धात्म भावना की उपेक्षा कर देता है तो उसके द्वारा ऐसा करने पर (उत्सर्गमार्ग छोड़ देने से) अधिक कर्मबन्ध होता है। फलतः वे मार्गभ्रष्ट पथिक के समान अनन्त संसार में भटकते रहते हैं। अत: दोनों मार्गों का आलम्बन लेकर संयम की सिद्धि करना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्य ने कहा है - बालो वा बुडो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरउ सजोग्गं मूलच्छेदं जधा ण हवदि / / 230 / / आहारे व विहारे व देसं कालं समं खमं उवधिं / जाणिता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥ प्रव0 231 // अर्थ - जो मुनि बालक (अल्पायु) है या वृद्ध है या थका हुआ है। (श्रमाभिहत, तपस्या, मार्गश्रम से खिन्न) या रोगादि से 219