________________ प्रयोग इसी अर्थ में आया है। समीक्षा इस तरह उभय जैन-परम्पराओं में पार्श्व अथवा पार्थापत्यों के सम्बन्ध में जो उल्लेख मिलते हैं उनमें निम्न बिन्दु विचारणीय हैं - (1) पार्श्व के चातुर्याम धर्म का पञ्चयाम धर्म में परिवर्तन। (2) पार्श्व के सचेलधर्म का अचेलधर्म में परिवर्तन। (3) प्रतिक्रमण की अनिवार्यता जो पार्श्व के समय में अपराध होने पर ही करणीय थी। (4) पार्श्व के सामायिक चारित्र में छेदोपस्थापनीय चारित्र का समावेश। (5) औद्देशिक तथा राजपिण्ड भिक्षान्न के ग्रहण का निषेध। (6) मासकल्प (एक मास से अधिक एक स्थान पर न ठहरना) तथा पर्युषणा (आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक वर्षावास में एक स्थान पर चार मास तक रहने का विधान) की व्यवस्था। (7) अस्नान, अदन्तधावन, केशलोंच आदि का विधान। (8) पार्श्व के विवाह एवं कुल-सम्बन्धी मतभेद। (9) पापित्य और पासत्थ शब्द क्या पार्श्वनाथ के लिए ही प्रयुक्त हैं? (10) प्रथम तीर्थङ्कर से लेकर चौबीसवें तीर्थङ्कर के काल की परिस्थितियों के अनुसार धार्मिक नियमों में संशोधन।। कुछ व्याख्यागत मतभेद होते हुए भी इन विचारणीय बिन्दुओं में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ और दशम में दोनों परम्पराएँ प्रायः एकमत हैं। सचेल और अचेल की व्याख्या को लेकर उभय-परम्पराओं में मतभेद है। पं0 कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'जैनसाहित्य का इतिहास ( पूर्वपीठिका)' में इस विषय पर विस्तार से चिन्तन किया है। वस्तुतः 'अचेल' का अर्थ 'नग्नत्व' है इसमें श्वेताम्बरों का भी मतभेद नहीं है, क्योंकि जिनकल्प की दृष्टि से नग्नत्व उन्हें स्वीकार्य है। वहाँ अदन्तधावन, नग्नत्व, केशलोच आदि भी कहें हैं। वस्तुतः भगवती और बृहत्कल्पभाष्य मान्यता के समर्थक हैं। जैनाचार के अनुसार जब कोई मुनि दीक्षा लेकर साधु (निर्ग्रन्थ) बनता है तो वह समस्त पाप-कार्यों का परित्याग करता है जिसे सामायिक चारित्र या सामायिक यम स्वीकार करना कहते हैं। इस एक यम रूप व्रत को जब भेद करके चार या पाँच यम रूप से स्वीकार किया जाता है तो उसे 'चातुर्याम' या 'पञ्चयाम' कहा जाता है। छेदोपस्थापना को जोड़कर महावीर ने इसे 'पञ्चयाम' रूप बनाया; ऐसी दिगम्बर मान्यता सम्भावित है। यह तर्कसङ्गत नहीं लगता है। अहिंसादि महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को जोड़कर उसे पञ्चयामरूप बनाया, ऐसी श्वेताम्बर मान्यता है। वस्तुतः दोनों में सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों परम्पराएँ अहिंसादि पाँच महाव्रतों (यमों) और सामायिक आदि पाँचों आचारों (यमों) को आवश्यक मानते हैं। सम्भवतः छेदोपस्थापना चारित्र को जोड़ने के कारण ही प्रतिदिन प्रतिक्रमण का विधान मान्य हुआ होगा। स्थानाङ्गसूत्र में बतलाया है कि शिष्यों की अपेक्षा से मध्य के बाईस तीर्थङ्कर तथा विदेहस्थ तीर्थङ्कर 'चातुर्याम' धर्म का तथा प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर 'पञ्चयाम धर्म का उपदेश करते थे। वास्तव में तो सभी पञ्चयाम धर्म का ही उपदेश करते हैं। यहाँ पञ्चयाम का तात्पर्य पाँच महाव्रतों से है, परन्तु इससे तथा अन्य उभय परम्परागत विवेचनों से स्पष्ट है कि पार्श्व और महावीर के उपदेशों में परमार्थत-मतभेद नहीं है; शिष्य-बुद्धि की अपेक्षा संक्षिप्त अथवा विस्तृत कथनमात्र है। इसीलिए आचाराङ्ग में साधु को सचेतन अथवा अचेतन, सूक्ष्म या स्थूल अल्पमात्र भी परिग्रह न रखने का विधान है अन्यथा वह परिग्रही कहलायेगा / इस तरह उभय-परम्पराओं के ग्रन्थों के आलोचन से स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ और महावीर के सिद्धान्तों में आध्यात्मिक या निश्चय दृष्टि से कोई भेद नहीं था; किन्तु शिष्य-योग्यता के आधार से उपदेश में भेद है, परन्तु पूर्ण अपरिग्रही (वीतरागता) होना दोनों का लक्ष्य है। जितने भी पार्थापत्यों अथवा पासत्थों के उल्लेख हैं वे सभी पार्श्व-परम्परा के सम्यक् अनुयायी थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा हम पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों को सही नहीं समझ सकेंगे। सन्दर्भ-सूची 1. हयसेणवम्मिलाहिं जादो हि वाणारसीए पासजिणो। तिलोयपण्णत्ति, 4.548. माता-पिता के नामादि के सन्दर्भ में श्वेताम्बर-दिगम्बर-परम्परा में कुछ अन्तर मिलता है। देखें- समवायाङ्गसूत्र, 220-221; कल्पसूत्र 209