________________ विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। परवर्ती चरितकाव्यों के आधारग्रन्थ यद्यपि प्राचीन ग्रन्थ ही हैं, तथापि उनसे जो अतिरिक्त जानकारी प्राप्त होती है उसका मूलस्रोत क्या है, स्पष्ट नहीं है। अत: इस आलेख में केवल प्राचीन उल्लेखों को ही आधार मानकर विवेचना की गयी है। विवेचना से यह ज्ञात होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों तथा मनुष्यों की मनोवृत्तियों को ध्यान में रखकर पार्श्वनाथ और महावीर के सिद्धान्तों में जो यत्किञ्चित् बाह्यभेद दृष्टिगोचर होता है वह नगण्य है, क्योंकि उनका मूल केन्द्रबिन्दु एक ही है। पार्श्वनाथ के आचार एवं सिद्धान्तों की तीर्थङ्कर महावीर के साथ तुलना करने के पूर्व यह आवश्यक है कि प्राचीन ग्रन्थों में उल्लिखित सन्दर्भो को समझ लिया जाये। इस सन्दर्भ में उभय परम्पराओं में जो सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, वे निम्न प्रकार हैं - 1. उत्तराध्ययनसूत्र'- इसमें पार्श्व-परम्परानुयायी केशी मुनि तथा महावीर-परम्परानुयायी गौतम गणधर के मध्य एक संवाद आया है जिसमें बाह्य रूप से दृश्यमान् मूलभूत दो अन्तरों का गौतम द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है जिससे सन्तुष्ट होकर केशी मुनि अपने 500 अनुयायियों के साथ महावीर द्वारा प्रतिपादित पञ्चयाम धर्म को स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ गौतम गणधर बतलाते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का पालन करना ही धर्म है। अन्य नियमोपनियम इसी के लिये हैं। भगवान् महावीर ने देशकाल की परिस्थितियों का विचार करके चातुर्यामधर्म को पञ्चयामधर्म (पञ्च महाव्रत) में और सचेलधर्म को अचेलधर्म में परिवर्तित किया है। कारण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ के समय मनुष्य ऋजु-जड़ (सरल परन्तु मन्दबुद्धि) थे, द्वितीय तीर्थङ्कर से तेईसवें तीर्थङ्कर के काल में ऋजुप्राज्ञ (सरल एवं बुद्धिमान्) थे, परन्तु चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर के काल में वक्रजड़ (कुटिल तथा मन्दबुद्धि) हो गये, जिससे पार्श्व के चातुर्याम को पञ्चयाम में और सचेल (सवस्त्र) को अचेल में संशोधित करना पड़ा। यह धर्म का मात्र बाह्य रूप था, क्योंकि अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य (स्त्री-परिग्रहत्याग) भी गतार्थ था। 2. सूत्रकृताङ्ग - इसमें 'उदक पेढालपुत्र' नामक पापित्य तथा महावीर के प्रधान शिष्य गौतम गणधर के मध्य वार्ता होती है, जिसमें पेढालपुत्र गौतम गणधर से प्रश्न करते हैं कि महावीर की परम्परा में श्रमणोपासकों से कष्टकर प्रत्याख्यान क्यों कराया जाता है? प्रत्याख्यान का रूप हैं 'राजाज्ञादि के कारण किसी गृहस्थ या चोर को बाँधने-छोड़ने के अतिरिक्त मैं किसी त्रस जीव की हिंसा नहीं करूंगा।' यहाँ पेढालपुत्र को शङ्का है कि त्रस जीव की हिंसा के त्याग का तात्पर्य क्या है? उस पर्यायवाले जीवों की हिंसा का प्रत्याख्यान अथवा त्रस रूप भूत-भावि-पर्यायवाले स्थावर जीवों की हिंसा का प्रत्याख्यान / गौतम गणधर यहाँ समाधान करते हैं कि वर्तमान त्रस पर्यायवाले प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान ही यहाँ अभीष्ट है। इस तरह तीर्थङ्कर पार्श्व के साथ तीर्थङ्कर महावीर का कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है। इसके अतिरिक्त इसमें महावीर के धर्म को पञ्चमहाव्रत तथा सप्रतिक्रमण धर्म कहा है। 3. भगवतीसूत्र- इसमें तीन प्रसङ्ग हैं - (क) पार्थापत्य गाङ्गेय अनगार और तीर्थङ्कर महावीर के मध्य प्रश्नोत्तर होता है, जहाँ महावीर पार्श्व की तरह 'सत्' को उत्पत्ति-विनाशवाला भी सिद्ध करते हैं। शुभाशुभ कर्मानुसार चारों गतियों में जीव का परिभ्रमण बतलाते हैं। इसमें कोई प्रेरक ईश्वर तत्त्व नहीं है। गाङ्गेय महावीर के समाधान से सन्तुष्ट हो जाता है। (ख) पार्थापत्य कालाश्यवैशिक-पुत्र की भगवान् महावीर के कुछ स्थविर श्रमणों से मुख्यरूप से सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग के स्वरूप पर चर्चा होती है। पश्चात् पार्थापत्य कालाश्यवैशिकपुत्र ने महावीर के सङ्घ में प्रविष्ट होकर पाँच महाव्रत और सप्रतिक्रमण रूप धर्म को स्वीकार किया। इसके साथ ही उसने मुनिचर्या-सम्बन्धी निम्न बातों को भी स्वीकार किया-नग्नता, मुण्डितता, अस्नान, अदन्तधावन, छाता नहीं रखना, जूते नहीं पहनना, भूमिशयन करना, फलक या काष्ठशयन करना, केशलोच करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, भिक्षा, परगृहप्रवेश करना (भिक्षार्थ श्रावकों के घर जाना, निमन्त्रण स्वीकार न करना)। लब्ध-अलब्ध, ऊँच-नीच, ग्रामकण्टक (इन्द्रिय-भोगों की वासना) आदि बाईस परिषहों को सहन करना।" छेदसूत्रों में मुनि-आचार के प्रसङ्ग में छाता, जूते, क्षुरमुण्डन के उल्लेखों को देखकर डॉ० सागरमल जी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पार्श्व की परम्परा में ये सब बातें प्रचलित थीं, जिन्हें महावीर ने दूर किया था। (ग) संयम और तप के फल के सम्बन्ध में महावीर के श्रमण प्रश्न करते हैं और पार्श्वपत्य संयम का फल अनास्रव तथा तप का फल निर्जरा बतलाते हैं। यहीं पर एक अन्य प्रश्न के उत्तर में पार्थापत्य विभिन्न मतवादों के द्वारा उत्तर देते हैं। जैसे- प्रश्न-जीव देवलोक में किस कारण से उत्पन्न होते हैं? उत्तर- कालीययुगानुसार प्राथमिक तप से, मोहिल स्थविर 207