________________ अर्धसत्य कहा है, जो सर्वथा भ्रामक है। कुछ इसी प्रकार की भ्रामक व्याख्या पं0 बलदेव उपाध्याय (भारतीय दर्शन, पृ० 173) एवं डॉ0 देवराज (पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ0 65) जी ने भी की है। मेरा स्पष्ट विचार है कि एकान्तवादी दर्शन चाहे जितना अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का खण्डन करें, परन्तु वे भी अपने सिद्धान्तों में समागत विरोधों की व्याख्या स्याद्वाद के माध्यम से ही करते हैं, जैसा कि पहले वस्तु की त्रयात्मकता के प्रसङ्ग में बतलाया गया है। स्व0 महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झा तथा स्व0 फणिभूषण अधिकारी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि शङ्कराचार्य जी ने स्याद्वाद को ठीक से समझा नहीं था अन्यथा वे उसका खण्डन नहीं करते। अनेकान्त दो प्रकार का है- सम्यग् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त। परस्पर सापेक्ष धर्मों का सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करना सम्यग् अनेकान्त है तथा परस्पर निरपेक्ष अनेक धर्मों का ग्रहण मिथ्या अनेकान्त हैं। एकान्त भी दो प्रकार का हैसम्यग् एकान्त और मिथ्या एकान्त अन्य सापेक्ष एक धर्म का ग्रहण सम्यगेकान्त हैं और अन्य धर्म का निषेध करके एक का अवधारण करना मिथ्यैकान्त है। मिथ्या अनेकान्त और मिथ्या एकान्त प्रमाणाभास हैं एवं अग्राह्य हैं, जबकि सम्यगनेकान्त और सम्यगेकान्त प्रमाणरूप हैं एवं ग्राह्य हैं। अन्य दर्शनों में स्याद्वाद-मुखापेक्षता ___ शङ्कराचार्य के अद्वैत वेदान्त में एक नित्य, निर्गुण परम ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार किया गया है। वह ब्रह्म जब मायोपाधि से युक्त होता है तो सगुण ब्रह्म (ईश्वर) बनकर सृष्टि करता है। ब्रह्म की यह माया या अज्ञान सत्-असत् से अनिर्वचनीय है, त्रिगुणात्मक है, ज्ञान-विरोधी है तथा भावरूप कुछ है। इसकी व्याख्या स्याद्वाद सिद्धान्त को माने बिना सम्भव नहीं है। ब्रह्म की निमित्त व उपादान कारणता, समष्टि चैतन्य, व्यष्टि चैतन्य, जीवन्मुक्त व विदेहमुक्त आदि की भी व्याख्यायें स्याद्वाद-मुखापेक्षी हैं। अत: अद्वैत (एकमात्र अविकारी तत्त्व) के रहते नानात्मक जगत् की व्याख्या के लिए वे त्रिविध सत्ता को स्वीकार करते हैं- पारमार्थिक सत्ता, व्यावहारिक सत्ता और प्रतिभासिक सत्ता। पारमार्थिक सत्ता जैनों के शुद्ध निश्चय नय या परम संग्रह नयवत् हैं। व्यावहारिक सत्ता जैनों के व्यवहार नय एवं पर्यायार्थिक नयवत् है। प्रातिभासिक सत्ता जैनों के उपचरित नयवत् है। वेदों का नासदीयसूक्त अनेकान्तवाद का ही पोषक है। ब्रह्म के निर्वचन में श्वेताश्वतर उपनिषद् के 'अणोरणीयान् महतो महीयान्,12 'क्षरमक्षरं व्यक्ताव्यक्तं च'13 की व्याख्या बिना अनेकान्त सिद्धान्त के सम्भव नहीं है। विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजाचार्य अपने विशिष्टाद्वैत की सिद्धि, भास्करभट्ट अपने भेदाभेद की सिद्धि, वल्लभाचार्य अपने निर्विकार ब्रह्म में उभयरूपता (परिणामी-नित्यता) की सिद्धि तथा विज्ञानभिक्षु (विज्ञानामृतभाष्यकार) अपने ब्रह्म में प्रकारभेद की सिद्धि अनेकान्त सिद्धान्त को स्वीकार किये बिना नहीं कर सकते जयराशिभट्ट ने अपने तत्त्वोपप्लवसिंह ग्रन्थ में भाव-अभाव आदि अनेक विकल्प जालों से वस्तु के स्वरूप का मात्र खण्डन किया है, जिनका समाधान स्याद्वाद पद्धति से ही किया जा सकता है। व्योमशिवाचार्य (प्रशस्तपादभाष्य के प्राचीन टीकाकार) आत्मसिद्धि के प्रकरण में आत्मा को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय सिद्ध करते हैं। यहाँ एक प्रश्न है कि आत्मा कर्ता होकर उसी समय संवेदन का कर्म कैसे हो सकता है? इसका उत्तर वे स्याद्वाद के माध्यम से देते हैं'लक्षणभेद से दोनों रूप हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं हैं। स्वतंत्र आत्मा कर्ता हैं और ज्ञान का विषय होने से वह कर्म भी है। बौद्धदर्शन में क्षणिकवाद स्वीकृत हैं। वहाँ शून्याद्वैतवाद अथवा विज्ञानाद्वैतवाद की सिद्धि बिना स्याद्वाद के सम्भव नहीं है। वहाँ भी द्विविध सत्य को स्वीकार किया जाता है- परमार्थसत्य और संवृति सत्य (व्यवहार-सत्य)। यह सिद्धान्त जैनों के निश्चय नय और व्यवहार नय के समान है। प्रतिक्षण परिवर्तनशील वस्तुओं की अविच्छिन्न धारा की सिद्धि, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था आदि बिना स्याद्वाद माने सम्भव नहीं है। भगवान् बुद्ध को शाश्वतवाद से यदि भय था तो उच्छेदवाद भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। वस्तु को त्रैकालिक इसलिए माना जाता है कि वह अतीत से वर्तमान तक तथा आगे भी प्रवहमान रहती है। कहा है - यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना। फलं तत्रैव बध्नाति कापसे रक्तता यथा।। यह कथन स्याद्वाद के बिना सङ्गत नहीं हो सकता है। वस्तुतः द्रव्य से अन्वय का ज्ञान होता है और पर्याय से 213