________________ (7) हवन या होम (जिससे अग्नि प्रसन्न हो) (7) चारित्ररूप भाव यज्ञानुष्ठान इससे तपरूप अग्नि को प्रसन्न करते हैं। (8) जलाशय ( स्नान के लिए ) (8) अहिंसा धर्मरूप जलाशय (9) शान्ति तीर्थ (सोपान ) (9) ब्रह्मचर्य और शान्ति (10) जल कैसा हो? (जिससे कर्मरज दूर हो) (10) कलुष भावरहित प्रसन्न लेश्या वाली आत्मा। अर्थात् उपरोक्त गुणरूपी तीर्थजल में स्नान करने से कर्मरज दूर हो जाती है) (11) निर्मलता (11) बाह्य स्नान की तरह अन्तरङ्ग आत्मा निर्मल और ताजी हो जाती है। इस तरह इस भावयज्ञ को करने वाला याजक तपरूप अग्नि को जीवात्मारूपी अग्निकुण्ड में, शरीररूपी करोषाङ्ग से प्रज्ज्वलित करके कर्मरूपी इन्धन (समिधा आदि) का तीन योगरूपी स्रुवा (आहुति देने का पात्र) से हवन करे। संयम व्यापाररूपी शान्ति पाठ को पढ़े तथा शुक्ललेश्या की तरह निर्मल आत्मरूपी बल से युक्त ब्रह्मचर्यरूपी शान्तितीर्थ में स्नान करे। इस तरह अध्यात्मयज्ञ करने वाला जब अध्यात्म-जलाशय में स्नान करता है तब वह अत्यन्त शीतल और निर्मल होकर कर्मरजरूपी मलों को धो देता है। यह स्नान ऋषियों द्वारा प्रशस्त है। जो इसमें स्नान करता है वह उत्तमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता है। नन्दमाणव पुच्छा (सुत्तनिपात) में भगवान बुद्ध और नन्द ब्राह्मण का संवाद है जिसमें भगवान बुद्ध ने बताया है कि जो कोई श्रमण या ब्राह्मण यज्ञ और श्रुत से शुद्धि चाहते हैं वे जन्म-जरा से निवृत्त नहीं होते हैं अपितु तृष्णा के त्याग और अनास्रव से युक्त मनष्य संसार के जरामरण से तर जाते हैं। अर्थात् प्रज्ञा, शील और समाधि का जो यज्ञानुष्ठान करता है वह संसार के दु:खों से निवृत्त हो जाता है। उन्होंने सुत्त-निपात में कहा है -हे ब्राह्मण ! लकड़ी जलाने को शुद्ध मत समझो क्योंकि यह सिर्फ बाह्य उपचार है। इसे कुशल लोग शुद्धि नहीं मानते है। अतः तेरा यह अभिमान खरिया का भार (खारिभार) है, कोष धूम है, मिथ्या वचन भस्म है, रसना (जिह्वा)सुवा है, और हृदय ज्योति है। अत: हे। बाह्मण कुशलों से प्रशंसित, निर्मल घर्म के तालाब में जिसमें शील तीर्थ (घाट) हैं, उसमें नहाने से वेदज्ञ बिना भीगे हुए पार उतर जाते हैं। इस परम स्थान की प्राप्ति, सत्य, धर्म, संयम और ब्रह्मचर्य पर निर्भर है। अतः तू ऐसी हवन क्रियाओं को नमस्कार कर जिसे मैं (भगवान बुद्ध) पुरुषदम्य सारथी (पुरुषों को विनम्र बनाने में सारथी रूप) मानता हूँ / इसी तरह महब व्यास ऋषि ने भी कहा है-ज्ञानरूपी चादर से ढके हुए, ब्रह्मचर्य और क्षमारूपी जल से पूर्ण, पापरूपी कीचड़ को नष्ट करने वाले अत्यन्त निर्मल तीर्थ में स्नान करके जीवकुण्ड में, दमरूपी पवन से उद्दीपित, ध्यानरूपी अग्नि में अशुभ कर्मरूपी काष्ठ की आहुति देकर उत्तम अग्निहोत्र यज्ञ को काम और अर्थ को नष्ट करने वाले शमरूपी मन्त्रों से दुष्टकषायरूपी पशुओं का यज्ञ करो। जो मूढ प्राणी मूक प्राणियों का वध करके धर्म की कामना करते हैं वे लोग काले सर्प की खोल में अमृत की वर्षा चाहते हैं।। इस विवेचन से स्पष्ट है कि सभी भारतीय मनीषियों ने हिंसा-प्रधान यज्ञ का प्रबल विरोध करके अहिंसामूलक यज्ञों की प्रतिष्ठा की। गृहस्थों के लिए - कुछ घृतादि से सम्पन्न होने वाले द्रव्ययज्ञों का खण्डन न करते हुए भावयज्ञों यमयज्ञों या अध्यात्मयज्ञों को सर्वश्रेष्ठ यज्ञ बतलाया। इस प्रकार के ही यज्ञ वस्तुतः परम तत्त्व की प्राप्ति में सहायक हैं। इस प्रकार के यज्ञों की पूर्णता सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समष्टि में या प्रज्ञा, शील और समाधि की समष्टि में या भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की समष्टि में है अतः कहा है-चारित्र की पूर्णता सम्यक् ज्ञान के बिना सम्भव नहीं हैं तथा ज्ञान गुण को पूर्णता चारित्र के अभाव में नहीं है अपितु दोनों की समष्टि ही पूर्णता है। उपनिषदों में जो 'ज्ञानयज्ञ' की चर्चा है सो उसमें चारित्र भी गतार्थ है क्योंकि जिसे सम्यग्ज्ञान हो जावेगा वह कभी मिथ्याचरण कर नहीं सकता है तथा पूर्णज्ञान की प्राप्ति विना चारित्र आ नहीं सकताहै। चूंकि संसार का मूलकारण अज्ञान है अत: उससे निवृत्ति का कारण भी ज्ञान है। इस दृष्टि से वहाँ पर 'ज्ञानयज्ञ' की चर्चा है। अतः भावों को निर्मलता जिसमें प्रधान है ऐसा अहिंसात्मक- अन्तरङ्ग शुद्धि को करने वाला यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ है। उसे हम अध्यात्मयज्ञ, यमयज्ञ, अहिंसायज्ञ, भावयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, ध्यानयज्ञ, शीलयज्ञ कुछ भी कहें उन सबका तात्पर्य एक ही है, अन्तरङ्गात्मा को शुद्धि और वही मुक्ति है। 203