________________ जयघोष नामक एक जैन मुनि जब विहार करते हुए अपने भाई विजयघोष ब्राह्मण के यज्ञमण्डप में पहुँचते हैं तो वहाँ पर उपस्थित ब्राह्मण याजकों से यज्ञान्न की याचना करते हैं। यह सुनकर ब्राह्मण लोग कुपित हो जाते हैं और मुनि की निन्दा करते हुए कहते हैं कि इस यज्ञान्न को सिर्फ वेदविद्, यज्ञकर्ता, ज्योतिषाङ्गविद्, धर्मशास्त्रज्ञाता तथा स्वपर का कल्याणकर्ता ब्राह्मण ही प्राप्त कर सकता है। तब मुनिराज इसके उत्तर में कहते हैं कि आप लोग न तो वेदों के मुख को जानते हो, न यज्ञों के मुख को, न नक्षत्रों के मुख को, न धर्म मुख को और न स्वपर के कल्याणकर्ता को। अत: न तो आप लोग वेदविद् हैं, न यज्ञविद् हैं, न ज्योतिषाङ्गविद् है, न धर्मशास्त्र के ज्ञाता हैं और न स्वपर के कल्याणकर्ता हैं। इस बात को सुनकर वे ब्राह्मण मुनिराज से पूछते हैं कि कौन वेदादि के मुख को जानता है और वेदादि के मुख क्या हैं ? यह सुनकर मुनिराज गम्भीर अर्थ से युक्त भाषा में वैदिक और जैन दृष्टि से समन्वित जो उत्तर देते हैं वह निम्न प्रकार है (1) वेदों का मुख- अग्निहोत्र वेदों का मुख है (जिस वेद में सच्चे अग्निहोत्र का प्रधानता से वर्णन हो वही वेद वेदों का मुख है)। 'अग्निर्मुखा वै वेदाः' ऐसी श्रुति भी है। वेदों में इसी अग्नि को प्रधानता होने से अग्नि के संस्कार को ही यज्ञ कहा जाता है। वैदिक, दैविक और भौतिक अग्नि में वैदिक अग्नि 'यजु' कहलाती है। इस तरह वेदानुसार अर्थ सङ्गत हो जाता है। परन्तु मुनिराज को यहाँ पर तप रूप अग्नि अभिप्रेत है, जिस तपाग्नि से कर्मरूपी महावन ध्वस्त किया जा सके। कहा भी है कर्मेन्धनं समाश्रित्य दृढसद्भावनाहुतिः। धर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका॥ अर्थात् धर्मध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी इन्धन को जलाना चाहिए। इस तरह मैं वेदों का मुख जानने से वेदविद् हूँ, अतः यज्ञान्न पाने का अधिकारी हूँ। यह प्रथम प्रश्न का उत्तर है। (2) यज्ञों का मुख - यज्ञार्थी (संयमरूपी यज्ञ करने वाला साधु) है। जिस यज्ञ से कर्मों का क्षय हो वही यज्ञों का मुख है। अथवा जो पापबन्ध में कारण न हो वही यज्ञों का मुख है और ऐसा यज्ञ है भावयज्ञ या यमयज्ञ। हिंसा-प्रधान वैदिक यज्ञ कर्मक्षय में कारण नहीं हैं अपितु कर्मबन्ध में ही कारण है। अतः बृहदारण्यक उपनिषद् में पूछा है-'किमहं तेन कुर्या येनाहं नामृता स्याम'। यहाँ पर अग्निहोत्र यज्ञ में जीवरूपी कुण्ड, तपरूपी वेदिका, कर्मरूपी इन्धन, ध्यानरूपी अग्नि, शुभोपयोगरूपी कल्छुली, शरीररूपी होता (यज्ञकर्ता) तथा शुद्धभावनारूपी आहुति बतलाई है। जिन शास्त्रों में ऐसे यज्ञों का विधान है उन्हें वेद कहते हैं और जो ऐसे यज्ञों को करता है वही सर्वोत्तम याजक है। इस उत्तर से मुनि ने अपने को यज्ञकर्ता बतलाया है। (3) नक्षत्रों का मुख- चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है। ज्योतिष शास्त्र का विषय नक्षत्र, चन्द्रमण्डल आदि हैं अत: नक्षत्रों का मुख ऐसा प्रश्न किया गया है। और तदनुसार चन्द्रमा को प्रधानता के कारण उसे नक्षत्रों का मुख कहा गया है। अत: मैं ज्योतिषशास्त्र का वेत्ता भी हूँ। इस तरह यह तृतीय प्रश्न का उत्तर है। (4) धर्मों का मुख- काश्यप धर्मों का मुख है। धर्मशास्त्र का वेत्ता वही हो सकता है जो धर्मों के मुख को पहचाने / अत: ऐसा प्रश्न सार्थक है। यहाँ काश्यप से तात्पर्य काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेवप्रणीत धर्म से है। वेदों में भी भगवान् ऋषभदेव की स्तुति बहुत स्थानों पर की गई है। इन्द्रादिदेव काश्यप (भगवान् ऋषभदेव) की स्तुति करते रहते हैं। (5) स्वपर का कल्याणकर्ता - जो आदर्श ब्राह्मण है जिसके स्वरूप का वर्णन हम पहले कर आये हैं वह ही स्व और पर का कल्याण करने में समर्थ है। अर्थात् जो अहिंसारूप यमयज्ञ का अनुष्ठान करता है वही स्व और पर का कल्याणकर्ता है। पशुओं की हिंसा करने वाला याजक ब्राह्मण, या ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से कोई स्वपर का कल्याण कर्ता नहीं हो सकता है - न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रणवासेण कुसचीरेण न तावसो॥ उत्तराध्ययन 25/31 / / अर्थ-शिर मुण्डन से श्रमण, ओंकार जाप से ब्राह्मण, अरण्यवास से मुनि और कुशतृण के वस्त्र धारण करने से कोई तपस्वी नहीं कहला सकता है। ये चिह्न तो मात्र बाह्य लिङ्ग के परिचायक हैं। बाह्यवेष को ही अन्तरङ्ग शद्धि का कारण मान बैठना भूल है। बाह्य पवित्रता की अपेक्षा अन्तरङ्ग पवित्रता को विद्वान् लोग उत्तम मानते हैं क्योंकि अन्तरङ्ग शुद्धि ही वास्तविक शद्धि है। शरीर की बीमारी का निवारण आन्तरिक खराबी के दूर करने से ही होता है। अतः प्रात: 201