________________ निर्णय दे देते हैं। फलस्वरूप राजा का सिंहासन पृथिवी पर गिर पड़ता है और राजा वसु सातवें नरक में जाकर अनन्त कष्टों को झेलते हैं। इस प्रसङ्ग में सिर्फ इतना ही बताया है कि 'अज' शब्द का अर्थ बकरा नहीं है अपितु धान्य विशेष है जिसमें अङ्कुर उत्पन्न करने की शक्ति क्षीण हो चुकी है। यहाँ 'अज' शब्द का बकरा अर्थ करना मात्र दुर्गति का कारण हो जाता है तब फिर पशु-यज्ञ कैसे धर्म कहे जा सकेंगे। यह पशु-यज्ञ की प्रथा अनार्य, माँस-लोलुप ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित की गई। जैसा कि महाभारत में कहा है - 'सुरा मत्स्या मधु-मांसमासवं कृसरौदनम्। धूर्तः प्रवर्तितं ह्येतन् नैतद् वेदेषु कल्पितम्॥ महाभारत, शान्तिपर्व 265,9 // चूंकि संसारी प्राणी स्वभाव से विषयासक्त होते हैं फिर यदि उन्हें इस प्रकार का उपदेश मिल जाय तो शीघ्र ही उसे ग्रहण कर लेते हैं। फलस्वरूप पशु-यज्ञों का प्रचलन बढ़ गया। परन्तु जो आर्य ब्राह्मण थे उनमें यह बात नहीं थी। उनका आदर्श ऊँचा था। बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात के ब्राह्मण धम्मिक सुत्त में जो ब्राह्मणों का आचरण बतलाया है वह बड़ा ही उच्च एवं आदर्शमय है यथा माता पिता भाता अज्ञे वापि च जातका। गावो नो परमा मित्ता यासु जायन्ति ओसधा // अन्नदा वलदा चेता वण्णदा सुखदा तथा। एतमत्थवसं ञत्वा नास्सु गावो हनिंसु ते।। अर्थ-माता, पिता, भाई और अन्य नातेदारों की तरह गायें भी हमारी मित्र हैं क्योंकि खेती उन पर निर्भर है। वे अन्न, बल, कान्ति एवं सुख देने वाली हैं। ऐसा सोचकर प्राचीन काल में गायों की हत्या नहीं करते थे। यहाँ पर हम 'बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन 22 से एक प्रसङ्ग उद्धृत करते हैं - 'हम उन पूर्व ऋषियों के प्रति आदर बुद्धि का प्रकाशन कर दें जो कि एक अत्यन्त सरल ढंग से यज्ञ करते थे और जिनके आचरण अत्यन्त पवित्र थे। ये ऋषि सम्भवतः संहिता काल के ही हो सकते हैं, क्योंकि इसी युग में इस प्रकार का सरल यज्ञमय विधान प्रचलित था। कुछ-कुछ इसे हम ब्राह्मण युग का भी परिचायक कह सकते हैं। पुराने ऋषि संयमी और तपस्वी होते थे, पाँच कामगुणों को छोड़ वे अपना अर्थ (ज्ञान, ध्यान), करते थे। उस समय ब्राह्मणों के पास न पशु थे, न हिरण्य, न अनाज। वे स्वघ्यायरूपी धन-धान्य वाले थे। ब्रह्मनिधि का पालन करते थे। नाना रङ्ग के वस्त्रों, शयन और आवसथों (अतिथि शालाओं) से समृद्ध जनपद-राष्ट्र उन ब्राह्मणों को नमस्कार करते थे। ब्राह्मण अबध्य, अजेय, धर्म से रक्षित थे, कुलद्वारों पर उन्हें कभी कोई नहीं रोकता था। .............वे तण्डुल, शयन, वस्त्र, घी और तेल को मांगकर धर्म के साथ निकालकर यज्ञ करते थे। यज्ञ-उपस्थिति होने पर वे गाय को नहीं मारते थे ब्राह्मणत्व की महिमा का कितना सुन्दर प्रख्यापन है। साथ ही वैदिक युग के निर्व्याज समाज और पशु-हिंसा के अभाव का कितना बड़ा साक्ष्य भी।। ___ 'पशु हिंसामयी, निकृष्ट तपस्या तो बुद्ध को ही नहीं सभी भारतीय मनीषियों' के लिए घृणा की वस्तु है, किन्तु यज्ञादिकों को नैतिक व्याख्या प्रदान करने की थी जैसी कि उपनिषदों की आध्यात्मिक व्याख्या प्रदान करने की थी 4 एक आदर्श द्रव्ययज्ञ का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं -'ब्राह्मण'! इस यज्ञ में गौएँ नहीं मारी गई, बकरे, भेड़े, मुर्गे, सूअर आदि नहीं मारे गए, न नाना प्रकार के प्राणी मारे गए। न यूप के लिए वृक्ष काटे गये। जो भी उसके दास, प्रेष्य, कर्मकर थे उन्होंने भी दण्ड-तर्जित, भय-तर्जित हो, अश्रुमुख रोते हुए सेवा नहीं की। जिन्होंने चाहा उन्होंने किया, जिन्होंने नहीं चाहा उन्होंने नहीं किया। जो चाहा सो किया, जो नहीं चाहा सो नहीं किया। घी, तेल, मक्खन, दही, मधु, गुड़ से ही वह यज्ञ समाप्त हुआ इस तरह हम देखते हैं कि वेद में पशु-हिंसा मौलिक नहीं है किन्तु बाद में अनार्य मांस लोभी ब्राह्मणों द्वारा लाई गई है। यदि ऐसा न होता तो जो याजक यह कहते हैं कि यज्ञ में जिस पशु का हवन किया जाता है वह स्वर्ग को जाता है तो वे स्वयं को क्यों नहीं हवन कर देते जिस स्वर्ग की प्राप्ति के लिए इतना द्राविड प्राणायाम करते इसी तरह जैन आगमग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र में भी आदर्श ब्राह्मण का स्वरूप बतलाया गया है उसे यहाँ प्रस्तुत करना आवश्यक है - जो अग्नि की तरह संसार में (पापरहित होने से) पूजनीय है तथा कुशलों (श्रेष्ठ-महापुरुषों) द्वारा संदिष्ट है उसे 198