________________ इसी तरह भगवान् बुद्ध के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड विशुद्धि-साधक नहीं है, वह तो सिर्फ लेन-देन रूपी व्यापार की भावना पर प्रतिष्ठित है। अर्थात् 'तुम मुझे यह दो, मैं तुम्हें यह देता हूँ' इस प्रकार की प्रवृत्तियों से सम्पूर्ण याज्ञिक विधान प्रतिष्ठित हैं। औपनिषदिक ऋषियों का विश्वास याज्ञिक विधान में दृष्टिगोचर नहीं होता है। वे यागादि क्रियाओं को यद्यपि परमार्थप्राप्ति में आवश्यक नहीं समझते हैं। तथापि अधिकारीभेद से आश्रम-धर्म की व्यवस्था के लिए उनका पूर्ण निराकरण भी नहीं करते हैं। इस तरह उनकी प्रवृत्ति एक तरफ समन्वयात्मक है और दूसरी तरफ निन्दात्मक। जैसे कहीं-कहीं पुरोहितों की खाने-पीने की लोलुपता को देखकर उनको एवं उनके याज्ञिक क्रिया-कलापों को एक घृणा की वस्तु बतायी गयी है। एक स्थान पर तो उन्हें कुत्तों की एक पाँत में खड़े जैसा भी दिखाया है। वे लोलुपतापूर्वक कहते हैं -'ओम् दा ओम् पिवा, ओम देवो वरुणः आदि (ॐ मुझे खाने दो, ॐ मुझे पीने दो, देव वरुण)।” इस लेन-देन के व्यापार के कारण ही देवों का भी दर्जा बहुत निम्न और लोलुपतापूर्ण दिखलाई पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास... जी ने इसका अच्छा वर्णन किया है जिसमें इन्द्र को श्वान' को उपमा दी गई है। इससे वैदिक देव की प्रतिष्ठा पर धक्का पहुँचता वेद को प्रमाण मानने वाले सांख्याचार्यों ने इन यज्ञों की निन्दा करते हुए कहा है - यूपं छित्त्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्। यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते // अर्थ-यूपादि (वृक्षादि) का छेदन करके, पशुओं की हिंसा करके तथा खून का कीचड़ करके यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो वह कौन-सा घोर कर्म है जिसके करने से नरक जाया जाता है। तथा सांख्यकारिका के प्रारम्भ में दैहिक, दैविक और भौतिक दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय व्यावहारिक (औषधादि) साधनों की तरह श्रौतविहित यज्ञप्रक्रिया को नहीं माना है - दृष्टवदानुश्रविकः सह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्॥2॥ अर्थ-लौकिक (दृष्ट) उपायों की तरह श्रुतिविहित यज्ञ भी दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं करा सकते क्योंकि श्रुतिविहित यज्ञ-विशुद्धि से रहित, क्षय और अतिशय से युक्त हैं। इसके विपरीत प्रकृति-पुरुष का ज्ञान ही श्रेयकारी है। वेद को ही प्रमाण स्वीकार करने वाले वेदान्तियों ने भी हिंसाप्रधान यज्ञों की निर्ममता देखकर कहा कि जो लोग पशुओं की हिंसा करके यज्ञ करते हैं। वे घोर अन्धकार में विलीन हो जाते हैं क्योंकि हिंसा न तो कभी धर्म रही है, न है और न रहेगी - अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्यैर्यजामहे। हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति॥ इस तरह वेदान्तियों ने हिंसाप्रधान धर्म का त्रैकालिक निषेध करके अहिंसाप्रधान धर्म की प्रतिष्ठापना की। यशस्तिलकचम्पू में एक प्रसङ्ग आता है जिसमें राजा यशोधर आटे का कल्पित मुर्गा बनाकर बलि चढ़ाते हैं जिसके फलस्वरूप वे कई भवों तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस कल्पित मुर्गे की बलि से यह बतलाया गया है कि जब कल्पित पशु की बलि इतनी अनिष्टकर हो सकती है तो साक्षात्पशु की बलि चढ़ाने से क्या दुर्गति होगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। अन्य संवाद जैन 'पद्मपुराण'21 में आता है जिसमें नारद और पर्वत के बीच 'अजैर्यष्टव्यम्' शब्द के अर्थ को लेकर विवाद उत्पन्न हो जाता है। तब वे सलाह करके उचित निर्णय कराने के लिए राजा वसु के पास अग्रिम दिन जाते हैं। उस समय राजा वसु सत्यवादी था तथा उसके प्रभाव से उसका सिंहासन पृथ्वी से ऊपर उठा रहता था। राजदरबार में पहुंचकर दोनों अपने-अपने पक्षानुसार 'अजैर्यष्टव्यम्' का अर्थ बताते हैं / (1) नारद-'अज से यज्ञ करना चाहिए' का अर्थ है-'उस प्रकार के धान्य (धान) से यज्ञ (हवन) करना जिसमें सहकारी कारण मिलने पर भी अङ्कुर उत्पन्न करने की शक्ति वर्तमान न हो।' (2) पर्वत –'अज से यज्ञ करना चाहिए' का अर्थ है-'बकरे की बलि चढ़ाकर यज्ञ (हवन) करना। राजा यद्यपि 'अज' शब्द का अर्थ कई बार धान्यविशेष कर चुके थे परन्तु किसी एक वचनबद्धता के कारण पर्वत के पक्ष में अपना 197