________________ अछूते नहीं रहे। उपनिषत्कालीन ऋषियों में यह प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। फलत: कुछ वैदिक ऋषि भौतिकता को छोड़कर आध्यात्मिक होने लगे। इसीलिए श्वेताम्बरों के ऋषिभाषित में ऐसे संयमी वैदिक ऋषियों के उल्लेख श्रमण संस्कृति के ऋषियों के साथ मिलते हैं। कुछ विद्वानों का मत है की वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की मान्यता वैदिक आर्यों में अवैदिक श्रमण संस्कृति से आई है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि संन्यास धर्म के बीज ऋग्वेद में भी मिलते हैं। ऋग्वेद में संन्यास धर्म के बीज मिलने से उसे वैदिक संस्कृति नहीं कह सकते, क्योंकि वेदों में श्रमण और ब्राह्मण दोनों संस्कृतियाँ मिलती हैं। उपनिषदों में तो स्पष्ट रूप से श्रमण संस्कृति को 'परमहंस' के रूप में समादृत किया गया है। ऋग्वेद में केशी, वातरशना आदि जैन श्रमण मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। सायणाचार्य आदि भाष्यकार इन मुनियों का सम्बन्ध यद्यपि वैदिक परम्परा से जोड़ते हैं, परन्तु विचार करने पर ये श्रमण-परम्परा-परिपोषक ही सिद्ध होते हैं। वस्तुत: वातरशना मुनि न केवल श्रमण थे, अपितु आद्य जैन तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ही थे, जैसा कि श्रीमद्भागवत पुराण के निम्न उद्धरण से स्पष्ट है वर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयतुकामो वातरशनानां श्रमणानाम् ऋषीणाम् ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्ल्या तनुवावततार। इससे स्पष्ट है कि वातरशना मुनि की श्रमण-धर्मपरम्परा ऋग्वेद में उल्लिखित है। हिन्दू शास्त्रों में भी जैनों के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव को भगवान् के अवतारों में गिनाया गया है। श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को 'परमहंस' दिगम्बर धर्म के प्रतिपादक के रूप में स्मरण किया गया है - “एवमनुशास्यात्मजान् स्वयमनुशिष्टानपि लोकानुशासनार्थ महानुभावः परमसुहृद् भगवान् ऋषभापदेश उपशमशीलानामुपरतकर्मणां महामुनीनां भक्ति-ज्ञान-वैराग्यलक्षणं परमहंसस्य धर्ममुपशिक्षमाणः स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागवतं भगवञ्जनपरायणं भरतं धरणीपालनाय अभिषिच्य स्वयं भवन् शरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिता हवनीयो ब्रह्मावर्तत् प्रवव्राज' यहाँ परमहंस का जो चित्र चित्रित किया गया है वह पूर्णत: भगवान् ऋषभदेव का है। अथर्ववेद के जाबाल्योपनिषद् में परमहंस के लिए निर्ग्रन्थ करपात्री, कमण्डुलधारी आदि विशेषण दिये गये हैं "यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्त्वब्रह्ममार्गे सम्यकसम्पन्नः” इसी प्रकार याज्ञवल्क्योपनिषद् में जैन नग्न श्रमण के लिए 'परमेश्वर' शब्द का प्रयोग किया गया है- “यथाजातरूपधरा निर्द्वन्दा निष्परिग्रहास्तत्त्वब्रह्ममार्गे सम्यक्सम्पन्नाः शुद्धमानसाः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण लाभालाभौ समो भूत्वा करपात्रेण वा कमण्डलुदकयोभैक्षामाचरन्नुदरमात्रसंग्रह; आशाम्वरो, न दारपुत्राभिलाषी लक्ष्यालक्ष्यनिवर्तकः परिव्राट् परमेश्वरो भवति / यहाँ परमेश्वर रूप साधु का जो रूप चित्रित किया गया है। वह पूर्णत: जैन मुनि में ही घटित होता है। जैन मुनि को 'परमेश्वर' कहना उनकी श्रेष्ठता और पूज्यता को दर्शाता है। बृहदारण्यकोपनिषद्, वाल्मीकिरामायण', अष्टाध्यायी आदि में भी जैन श्रमणों के उल्लेख मिलते हैं। भारतीय पुरातत्त्व के इतिहास को देखने से भी ज्ञात होता है कि सिन्धु देश की मोहनजोदड़ो संस्कृति और हड़प्पा संस्कृति प्राचीनतम हैं। वहाँ जो पाषाण-मूर्तियाँ हैं वे श्रमण संस्कृति के अनुकूल ध्यान की कायोत्सर्ग -मुद्रा में हैं। तदनन्तर अशोकनिर्मित पुरातात्विक चिह्न अन्य की अपेक्षा प्राचीन हैं / वहाँ भी आजीवक साधुओं के साथ निर्ग्रन्थ साधुओं का उल्लेख है।" आजीवक और निर्ग्रन्थ दोनों श्रमण-संस्कृति के साधु हैं। इसी प्रकार खण्डगिरि, उदयगिरि, खारवेल आदि के पुरातत्त्व श्रमण संस्कृति के परिपोषक हैं। इस प्रकार प्राग्वैदिक काल से लेकर आज भी श्रमण संस्कृति भारत में अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है। यद्यपि यह श्रमण संस्कृति विभिन्न धाराओं में प्रवाहित थी परन्तु आज प्रमुख रूप से जैन और बौद्ध इन दो धाराओं में विभक्त है। बौद्ध श्रमण संस्कृति का प्रवाह भारतदेश की अपेक्षा भारत से बाहर बर्मा, सीलोन, थाईलैंड आदि देशों में अधिक है। जैन श्रमण संस्कृति प्रमुखरूप से भारतदेश में ही परिव्याप्त है। 'श्रम् धातु से 'युच्' प्रत्यय करने पर 'श्रमण' शब्द बनता है। श्रमण शब्द के लिए प्राकृत और पालि भाषा में 'समण', मागधी में 'शमण', अपभ्रंश में 'सवणु', कन्नड में 'श्रमण', यूनानी में मेगस्थनीज ने 'सरमनाई', चीनी में ह्वेनसांग ने 'श्रमणेरस' आदि शब्दों का प्रयोग किया है। सामान्यतः श्रमण के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं- श्रमण, शमन और समण / जैसे 193