________________ तेज, वायु' इन भूतचतुष्टयों से निर्मित शरीर, मन, इन्द्रियादि से भिन्न कोई पृथक् चेतन तत्त्व नहीं है। शरीर के उत्पन्न होने पर चेतनता उत्पन्न होती है और उसके नष्ट होने पर समाप्त हो जाती है। मैं स्थूल हूँ, 'मैं कृष हूँ इत्यादि अनुभूतियाँ इसमें प्रमाण हैं तथा 'मेरा शरीर' 'मेरी इन्द्रियाँ इत्यादि अनुभूतियाँ काल्पनिक हैं। इसीलिए यह दर्शन देहात्मवादी, भौतिकवादी कहलाता है। इस दर्शन के प्रणेता बृहस्पति हैं, इसीलिए इसे 'बार्हस्पत्य दर्शन' भी कहा जाता है। इसका प्राचीन नाम 'लोकायत' (लोक में आयत या व्याप्त) है तथा मीठी बातें करने वाला, स्वर्ग-नरक आदि का चर्वण करने वाला होने से चार्वाक (चारु+वाक्) प्रसिद्ध है। आत्मा को न मानने से यह पुनर्जन्म, मोक्ष, ईश्वर आदि में विश्वास नहीं करता है। इसका एक मात्र सिद्धान्त है - 'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः / / अनुमान (अन्वय-व्यतिरेकी) के द्वारा भी वे अपनी बात को सिद्ध करते हैं 'शरीर के रहने पर ही चैतन्य का आविर्भाव होता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य का भी अभाव हो जाता है। इसके अतिरिक्त अन्न-पान के सेवन से शरीर में प्रकृष्ट चैतन्य का अभ्युदय होता है और अन्न-पान के ग्रहण न करने पर चेतनता का ह्रास होता है। जैसे- जौ, चावल आदि में मादकता नहीं है फिर भी जब उससे मदिरा बनायी जाती है तो उसमें मादकता पैदा हो जाती है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के सम्मिश्रण से चेतनता का आविर्भाव हो जाता है। 2. अनात्मवादी बौद्ध दर्शन इसके उपदेष्टा गौतम बुद्ध हैं। उन्होंने मनुष्यों में 'पशु-यज्ञ से स्वर्ग-प्राप्ति' आदि दुष्प्रवृत्तियों का कारण नित्य आत्मा को जानकर नैरात्म्यवाद (सङ्घातवाद, सन्तानवाद) की प्रतिष्ठापना की। उन्होंने कहा आत्मा पञ्च-स्कन्धों (नाम, रूप, वेदना, विज्ञान और संस्कार) का सङ्घातमात्र है। इनकी मान्यता है कि पुण्य-पाप कर्मों का फल जरूर मिलता है परन्तु वह फल उसी सन्तान परम्परा के नये व्यक्ति को मिलता है, उसे नहीं। ये निर्वाण भी स्वीकार करते हैं परन्तु निर्वाण होने पर न सुख होता है, न दुःख, केवल दीपक की लौ बुझने के समान पञ्चस्कन्धात्मक आत्म-सन्तान परम्परा का अन्त हो जाता है। ये विभिन्न मानसिक अनुभवों और प्रवृत्तियों को स्वीकार करके भी आत्मा को नहीं मानते क्योंकि आत्मा मानस प्रवृत्तियों का अथवा विज्ञान का पिण्ड-मात्र है। यह दर्शन चार सम्प्रदायों में विभक्त है- वैभाषिक (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवादी), सौत्रान्तिक (बाह्यार्थ अनुमेयवादी), योगाचार (विज्ञानवादी) और माध्यमिक (शून्यवादी)। चारों ही ये दार्शनिक सम्प्रदाय क्षणिकवादी और अनात्मवादी हैं। माध्यमिक तो बाह्य जगत् और आभ्यन्तर जगत् दोनों को शून्य अथवा मायारूप मानते हैं। इनकी केवल व्यावहारिक सत्ता है, पारमार्थिक नहीं। केवल वर्तमान काल में इनका विश्वास है। इस तरह यह दर्शन अनात्मवादी होकर भी पाप-पुण्य, कर्म, परलोक, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि में विश्वास तो करता है परन्तु क्षणिकवादी होने से ये आत्मा को पञ्चस्कन्थ का सङ्घात कहते हैं। ध्यान देने की बात है कि इनके पञ्चस्कन्ध में वेदना, विज्ञान और संस्कार जैसे तत्त्वों को भी स्वीकार किया गया है। इन्होंने नित्य आत्मा न मानकर सन्तान-परम्परा को स्वीकार करके दुःख-निवृत्ति और मोक्ष की व्याख्या की है। यहाँ ध्यातव्य है कि कोई नित्य आत्मा न मानने पर स्मृतिलोप, कृतकर्म-हानि, अकृत-कर्म-भोग, संसार से मुक्ति का भङ्ग आदि दोष उपस्थित होते हैं। 3. न्याय-वैशेषिक न्याय दर्शन के प्रवर्तक हैं न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम और वैशेषिक दर्शन के प्रणेता हैं महर्षि कणाद। ये दोनों शरीर, मन, इन्द्रिय आदि से भिन्न आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करते हैं। इन्होंने आत्मा को सुखाद्याश्रय तथा इन्द्रिय अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार किया है। इनके अनुसार ज्ञानादि नौ विशेष गुण (ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार) आत्मा के आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। ज्ञानादि आत्मा का स्वभाव नहीं, इसीलिए जब आत्मा को मोक्ष होता है तब उसमें ज्ञानादि गुणों का अभाव हो जाता है। ज्ञान के अभाव में आत्मा जड़ हो जाता है। इसीलिए लोग इस तरह की मुक्ति की अपेक्षा वृन्दावन के जंगल में सियार बनना ज्यादा पसन्द करते हैं। सांसारिक अवस्था में आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा, भोक्ता और कर्ता भी है। यह नित्य है, व्यापक है,अमूर्त है और निष्क्रिय भी है। व्यापक होने पर भी ज्ञान-सुखादि का अनुभव स्वयं नहीं करता अपितु अणुरूप मन की सहायता से करता है। मन प्रत्येक शरीर में भिन्न है, क्रियावान् होने से मूर्त तथा अणु है। अतः आत्मा व्यापक होकर भी शरीर में ही ज्ञान-सुखादि का अनुभव करता है, बाहर नहीं। आत्मा प्रतिशरीर में होने से अनेक हैं। ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म है। केवल ईश्वर का 172