________________ ज्ञान नित्य है, वह सर्वज्ञ है, व्यापक है, सृष्टिकर्ता है और सर्वशक्तिमान् भी है। कुछ ईश्वर को सशरीरी और कुछ अशरीरी मानते हैं। आत्मत्व' जाति ईश्वर और जीवात्मा दोनों में है। जीवात्मा बद्ध है और ईश्वर सदा मुक्त। मुक्तावस्था में ज्ञानसुखादि का अभाव हो जाने से वह पाषाणवत् हो जाता है। शरीर को आत्मा समझना मिथ्या ज्ञान है और मिथ्याज्ञान से राग-द्वेष, पाप-पुण्य, जन्म-मरण तथा दु:ख रूप संसार-परिभ्रमण होता है। मिथ्याज्ञान के नष्ट होने पर राग-द्वेष नष्ट हो जाता है। तदनन्तर पाप-पुण्य की प्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है। प्रवृत्ति के अभाव में जन्म का अभाव हो जाता है और जन्म का अभाव होने पर दुःखों का अभाव हो जाता है। ज्ञान की सत्ता देश और काल में भी मानी गई है परन्तु वहाँ ज्ञान की सत्ता क्रमश: दैशिक और कालिक सम्बन्ध से है, समवाय सम्बन्ध से नहीं। इसी से देश और काल के साथ आत्मा का पार्थक्य प्रकट होता है। प्रारब्ध कर्मों के उपभोग के बिना पूर्ण मुक्ति सम्भव नहीं है। ये जीवन-मुक्ति (अपर-निःश्रेयस्) और विदेह मुक्ति (पर-निःश्रेयस्) दोनों मानते हैं। इस तरह इनकी आत्मा ज्ञानाश्रय होकर भी ज्ञान स्वरूप नहीं है। चार्वाक और बौद्धों के चिन्तन की अपेक्षा इनका आत्म तत्त्व, जड़ तत्त्व से कुछ पृथक् है। 4. सांख्य-योग सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि हैं तथा योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि। सांख्य को निरीश्वरवादी और योग को ईश्वरवादी कहा जाता है। दोनों ही प्रकृति और पुरुष इन दो तत्त्वों की सत्ता को स्वीकार करते हैं। योग दर्शन में ईश्वर को क्लेश, कर्म आदि से रहित पुरुष-विशेष कहा गया है। आत्मा के लिए पुरुष शब्द का प्रयोग हुआ है जो कूटस्थ नित्य, त्रिगुणातीत (सत्व, रजस् और तमस् से रहित), अविकारी, निर्लिप्त, निर्गुण, अकर्ता, अप्रसवधर्मी और साक्षी है। पुरुषों की संख्या अनेक है। ज्ञान (बुद्धि) जड़ प्रकृति का परिणाम है जिसे महत् तत्त्व कहा गया है। इसका सम्बन्ध जब आत्मा से होता है तो वह पुरुष ज्ञानरूप हो जाता है किन्तु मुक्तावस्था में प्रकृति से सम्बन्धविच्छेद हो जाने के कारण वह ज्ञान, सुखादि से रहित हो जाता है। संसारावस्था में आत्मा के साथ जब बुद्धि का सम्पर्क होता है तब वह सुखादि का अनुभव करता है। प्रकृति केवल की है और पुरुष केवल भोक्ता है। पुरुष और प्रकृति का भेदकज्ञान (विवेक ज्ञान) होने पर जीवात्मा की मुक्ति होती है। वस्तुत: बन्धन और मोक्ष प्रकृति का होता है ऐसा सांख्यकारिका में कहा गया है। क्रियाशीलता प्रकृति का धर्म है, आत्मा का नहीं। वह तो अविकारी है, निष्क्रिय है, अकर्ता है, सर्वव्यापक है, सर्वधर्मी है, चैतन्यरूप है परन्तु ज्ञान उसका स्वभाव नहीं है, इसीलिए मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं रहता है। सात्त्विक बुद्धि के चार गुण हैं- धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य तामस् बुद्धि के भी चार गुण हैं- अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य। सात्त्विक बुद्धि से (महत्) अहङ्कार, मन, और इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं और तामस से तन्मात्राएँ और महाभूत पैदा होते हैं प्रकृति का विकार होने से स्वभावतः बुद्धि अचेतन है। बुद्धि में जब चैतन्यात्मक पुरुष प्रतिबिम्बित होता है और प्रतिबिम्बित पुरुष का पदार्थों के साथ सम्पर्क होता है तो उसे ही ज्ञान कहते हैं। बुद्धि में चैतन्य पुरुष का प्रतिबिम्ब होने पर परस्पर उपकार होता है और प्रतिबिम्बित पुरुष ज्ञाता और भोक्ता कहलाता है। पुरुष प्रकृति का अधिष्ठाता है और प्रकृति के कार्य पुरुष के लिए होते हैं। पुरुष अनेक हैं। इस तरह इन दोनों दर्शनों में मुक्तावस्था में ज्ञान, सुख आदि का अभाव है क्योंकि ये प्रकृति के साथ सम्बन्ध होने पर होते हैं। प्रकृतिलीन पुरुष भी मुक्त कहलाते हैं परन्तु वे भविष्य में पुनः बन्धन में आ सकते हैं। सदा मुक्त ईश्वर अन्य मुक्तों से भिन्न है। संसारी पुरुष ॐ का ध्यान करने से ईश्वर की कृपा का पात्र होता है तथा उसे स्व-स्वरूप का साक्षात्कार भी हो जाता है। ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। योगदर्शन में चिकित्साशास्त्र की तरह (रोग, रोग हेतु, आरोग्य और औषध) चार व्यूह हैं- दु:खमय संसार, संसार का हेतु प्रकृतिसंयोग, मोक्ष (प्रकृति-संयोग की आत्यन्तिक निवृत्ति) और निवृत्ति का उपाय (सम्यग्दर्शन, अष्टाङ्ग योग आदि)। बौद्ध दर्शन में भी इस प्रकार के चार आर्य सत्य बतलाए हैं- दु:ख, दु:ख के कारण, दुःख से निवृत्ति और दु:खनिरोधोपाय। चित्त (अन्तःकरण = बुद्धि, मन और अहङ्कार) की पाँच भूमियाँ बतलायी हैं- 1. क्षिप्त (रजोगुणोद्रेक), 2. मूढ (तमोगुणोद्रेक), 3. विक्षिप्त (सत्त्व-मिश्रितोद्रेक), 4. एकाग्र (सत्त्वोद्रेक) और 5. निरुद्ध (चित्त निरोध)। इस तरह सांख्य-योग दर्शन न्याय-वैशेषिक के आत्म-तत्त्व से एक कदम आगे तो बढ़ता है परन्तु ज्ञान-सुखादि को उसका स्वभाव नहीं मानता है। पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध और उस सम्बन्ध से निवृत्ति भी एक अनसुलझी पहेली बनी रहती 5. मीमांसा (पूर्व-मीमांसा) इसे पूर्व-मीमांसा तथा कर्म-मीमांसा भी कहते हैं। इसके प्रतिपादक महर्षि जैमिनि हैं। इस दर्शन के तीन प्रमुख 173