________________ 12. दुःखात्यन्तसमुच्छेदे सति प्रागात्मवर्तिनः / सुखस्य मनसाभुक्तिर्मुक्तिरुक्ता कुमारिलैः / / मानमेयोदय, पृ0 212 तथा देखें वेदान्तकल्पलतिका, पृ0 4 14. अहं ब्रह्मास्मि। बृह0 उप0, 1.4.10, अयमात्मा ब्रह्म।-माण्डूक्य उप0 2, तत्त्वमसि / छा0 उप0, 6.8.7, द्रष्टव्य, उपनिषत्संग्रह, पण्डित जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली। 15. बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते। श्वेताश्वतरोपनिषद्, 5.9 // 16. देखें, भागवत-तात्पर्य-निर्णय, माध्वबृहद्भाष्य / अणुं हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहुः / / दशश्लोकी, 1. 18. कार्यकारणरूपं हि शुद्धं ब्रह्म न मायिकम् / शुद्धाद्वैतमार्तण्ड, 28 19. विशेषनिर्भेदेऽपि तत्त्वे भेदव्यवहारो विशेषबलात् / सिद्धान्तरत्न, पृ0 23 20. अहं देवी न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् / सच्चिदानन्दरूपोऽहं नित्यमुक्तस्वभाववान् / / कुलार्णव, 1/6 21. वही, 1/6-10 22. देखें, द्रव्यसंग्रह, गाथा 2-14, 50-51 भारतीय चिन्तन में मोक्ष तत्त्व : एक समीक्षा (शुद्ध आत्म-स्वरूपोपलब्धि ही मोक्ष है। इसमें सभी दर्शन एक मत हैं। मोक्ष में ज्ञान, सुख, इन्द्रियाँ, शरीर, निवासस्थान आदि की क्या स्थिति होती है? क्या बौद्धों की तरह निर्वाण सम्भव है? मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है? क्या उन्हें ईश्वर कहा जा सकता है? क्या कोई अनादि मुक्त भी है? आदि प्रश्नों का समाधान इस आलेख में किया गया है।) सभी भारतीय दर्शनों का चरम लक्ष्य है 'मोक्ष' जिसका अर्थ है 'संसार-बन्धन से मुक्ति' अथवा अपने निज शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति / अत: जिस दर्शन में आत्मा का जैसा स्वरूप बतलाया गया है वहाँ उस आत्म-स्वरूप को प्राप्त होना मोक्ष है। जैसे विजातीय तत्त्वों से अशुद्ध सोने को हम अग्नि में तपाकर उसके विजातीय तत्त्वों को हटाकर शुद्ध करते हैं वैसे ही विजातीय कर्म अथवा अज्ञान के आवरण से जो आत्मा मलीमस हो रहा है उसे संयम, समाधि अथवा तपरूप अग्नि में तपाने पर उसका शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। मोक्षमार्ग(श्रेयोमार्ग) कठोपनिषद् में आया है कि संसारी प्राणी दो प्रकार के मार्गों में से किसी एक मार्ग पर चलता है, वे दो मार्ग हैंप्रेयोमार्ग (संसारमार्ग) और श्रेयोमार्ग (मुक्तिमार्ग)। प्रेयोमार्ग का वरण करने वाला प्राणी आपाततः रमणीय विषयभोगों में प्रवृत्त होकर संसार में भटकता रहता है। अधिकतर प्राणी अज्ञानवश इसी मार्ग का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति का मूल कारण है- राग और द्वेष / इन्द्रियों को सुख देने वाले पदार्थों से राग (प्रेम, लगाव, भोगेच्छा आदि, करना ही प्रेयोमार्ग है। इन रागी-द्वेषी प्रवृत्तियों का प्रभाव हमारे चित्त और इन्द्रियों पर इतना अधिक पड़ता है कि वह अवश होकर श्रेयोमार्ग (परम कल्याणकारी मार्ग, धर्ममार्ग) की उपेक्षा कर देता है। श्रेयोमार्ग का अवलम्बन करने वाला प्राणी विषयभोगोन्मुखी प्रवृत्ति को रोककर अन्तर्मुखी (आत्मोन्मुखी) होकर चित्त-शुद्धि को करता है। हमारे सांसारिक जीवन के ऊपर अज्ञान, राग, द्वेष आदि का तमोपटल इतना गाढ़ा है कि उसे दूर करने के लिए निरन्तर सदृष्टि, सद्ज्ञानाभ्यास तथा सदाचरण की नितान्त आवश्यकता है। इन्द्रिय-संयम, आत्मध्यान, यम-नियम, समाधि, समता, तप आदि के द्वारा इसी बात को कहा गया है। अत: जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग (श्रेयोमार्ग) बतलाया गया है। बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधनों को एतदर्थ आवश्यक 178