________________ प्रकृति (अव्यक्त, समस्त सृष्टि का मूल कारण) महत् (बुद्धि, अध्यवसाय=निश्चय करना) अहङ्कार (मैं, मेरा, ऐसा अभिमान ) सात्विक अंश राजस् अंश तामस् अंश 5 ज्ञानेन्द्रियाँ 5 कर्मेन्द्रियाँ मन (सङ्कल्प-विकल्प रूप) 5-तन्मात्रायें - (शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध) 5 महाभूत (आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी) (चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, त्वक्) (वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ) प्रकृति के इस विकास में मूल प्रकृति सबका कारण है और महदादि उसके कार्य। कारण से कार्य भिन्न नहीं होता है। अतः प्रकृति के सभी धर्म महदादि में पाये जाते हैं। उनमें यदि अन्तर है तो केवल प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रजस् और तमस्) के तरतमभाव =हीनाधिकभाव= प्रधानाप्रधानभाव का। प्रकृति के ये तीनों गुण जिनका प्रकृति के साथ स्वरूप सम्बन्ध (ने संयोग और न समवाय) है, जब ये तीनों साम्यावस्था में रहते हैं तो उसे मूल प्रकृति या अव्यक्त कहते हैं। प्रलयावस्था में ऐसी स्थिति होती है। जब इन गुणों में विक्षोभ पैदा होता हैं तो महदादि क्रम से सृष्टि होती है। जगत् के सभी पदार्थ त्रिगुणात्मक हैं क्योंकि त्रिगुणात्मक प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति (आविर्भाव) होती है। अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आना ही सृष्टि है। महदादि को व्यक्त' नाम से कहा गया है। इस सृष्टि का कर्ता कोई ईश्वर नहीं है अपितु जब पुरुष और प्रकृति का सप्रयोजन संयोग होता है तो प्रकृति में विक्षोभ होता है। प्रकृति का प्रयोजन है भोग और पुरुष का प्रयोजन है मोक्ष। अर्थात् प्रकृति भोग के लिए पुरुष की अपेक्षा रखती है और पुरुष मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रकृति की अपेक्षा रखता है। इस सन्दर्भ में लंगड़े और अन्धे का दृष्टान्त दिया जाता है। प्रकृति का स्वरूप - यह जड़ है और त्रिगुणात्मिका है। इसके अतिरिक्त सक्रिय है, भोग्या है, सावयव है, परिणामी है, समस्त संसार की जनक है। पुरुषसंसर्ग से इसमें ही कर्तृत्व और भोक्तृत्व पाया जाता है। प्रकृति में प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। यह पणिमन (परिवर्तन) दो प्रकार का है-(1) स्वरूपपरिणमन (सदृश = समानाकार) और (2). विरूपपरिणमन (असमानाकार। प्रलयावस्था में जब प्रकृति तीनों गुणों की साम्यावस्था में रहती है, तब स्वरूपपरिणमन होता है। पुरुष में परिणमन नहीं होता अतः वह अपरिणामी है। रजोगुण - प्रकृति में क्रियाशीलता उसके रजोगुण के कारण है। यह रजोगुण उत्तेजक, चञ्चल, प्रेरक, दुःखजनक तथा रक्तवर्ण वाला है। इसी के कारण इन्द्रियों की विषयों के प्रति आसक्ति होती है। यह स्वयं चल है और दूसरों को भी चलायमान करता है, जैसे जल स्वयं बहता है और दूसरों को भी बहाता है। तमोगुण - यह अज्ञान का सूचक है। अन्धकार, आवरण या अवरोध करना इसका कार्य है। जड़ता, निष्क्रियता, मोह, निद्रा, तन्द्रा, आलस्य, अकर्मण्यता, उदासीनता आदि का जनक है। भारी है तथा कृष्णवर्ण का है। सत्त्वगुण' - यह प्रकाशक है, लघु है, श्वेत है, शान्त है और उज्ज्वल है। सुख देने वाला तथा ज्ञान प्रदान करने वाला भी है। इसी गुण के कारण ही विषय प्रकाशित होते हैं / यद्यपि ये तीनों गुण परस्पर विरोधी हैं परन्तु स्त्री-पुरुष-संयोग के समान मिलकर ही सृष्टि करते हैं। तीनों गुणों 185