________________ 1.1) पञ्चाध्यायी में कवि राजमल्ल जी ने रत्नत्रय को धर्म बतलाते हुए स्पष्ट कहा है कि सम्यग्दर्शन के बिना न तो गृहस्थधर्म सम्भव है और न मुनिधर्म। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के सम्यक्पने का एकमात्र कारण है सम्यग्दर्शन स धर्मः सम्यग्दृग्ज्ञप्तिचारित्रत्रितयात्मकः। तत्र सद्दर्शनं मूलं हेतुरद्वैतमेतयोः॥ -पञ्चाध्यायी, 2.716 ततः सागाररूपो वा धर्मोऽनगार एव वा। सदृक्पुरस्सरो धर्मो न धर्मस्तद्विना क्वचित्॥-वही 2.717 सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही अपनी आत्मा में एकत्व का अनुभव करता है। वह उस आत्मा को सब कर्मों से भिन्न शुद्ध और चिन्मय मानता है। वह शरीर, सुख, दुःख, पुत्र, पौत्र आदि को अनित्य मानता है। वे कर्म के कार्य हैं ऐसा मानकर उन्हें आत्मा का स्वरूप नहीं मानता (पञ्चाध्यायी, 2.512-513) / अतः वह भयरहित होता हुआ आत्मलीन रहता है। ऐसे उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि जीव को सिद्धों के समान शुद्ध स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, ऐसा कवि राजमल्ल ने स्पष्ट स्वीकार किया है अस्ति चात्मपरिच्छेदि ज्ञानं सम्यग्द्रगात्मनः। स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदोपमम् / / -पञ्चाध्यायी 2.489 इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, वैराग्य एवं चारित्र अवश्यम्भावी हैं। यह अवश्य है कि जैसेजैसे ज्ञान बढ़ता जाता है वैसे-वैसे सम्यग्दर्शन भी दृढ़तम होता जाता है। जहाँ सच्चा सम्यक्त्व है और सच्चा ज्ञान भी है। वहाँ सदाचार तो बिना प्रयत्न के आ जाता है। इसीलिए केवलज्ञान के समय यथाख्यात चारित्र ही माना गया है। जो व्यक्ति मुहूर्तकाल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करके उसे छोड़ देते हैं वे इस संसार में अनन्तानन्तकाल तक नहीं रहते लभ्रूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति। तेसिमणंताणंता ण भवदि संसारवासद्धा / / भगवती आराधना, 53 जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से पतित नहीं होते वे अधिक से अधिक सात या आठ भव धारण करते हैं- 'अप्रतिपतितसम्यग्दर्शनानां परीतविषयः सप्ताष्टानि भवग्रहणानि उत्कर्षेण वर्तन्ते, जघन्येन द्वित्रीणि अनुबन्ध्योच्छिद्यन्ते'। राजवार्तिक 4.25 / यदि दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय हो गया है तो या तो उसी भव में या तीसरे-चौथे भव में नियम से मोक्ष प्राप्त होता है-'दसंणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवे।' क्षपणसार, 165 / / इसी महत्त्व के कारण रत्नकरण्डश्रावकाचार (34, 28) में कहा है-'तीनों कालों और तीनों जगत् में जीवों का सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी अन्य कुछ भी नहीं है। गणधरादि देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डाल को भी भस्म से ढकी हुई चिनगारी के समान 'देव' कहते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (325, 326) में कहा है सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महारत्न है, सब चक्रवर्ती आदि से भी अधिक वन्दनीय होता है / व्रतरहित होता हुआ भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुखों को प्राप्त करता है। 'सागारधर्मामृत' में तो यहाँ तक कहा है कि मिथ्यात्वग्रस्त चित्तवाला मनुष्य पशु के समान है तथा सम्यक्त्वयुक्त पशु भी मनुष्य के समान है - नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः। पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतसः।-सागारधर्मामृत 1.4 . ज्ञानार्णव में विशुद्ध सम्यग्दर्शन को मोक्ष का मुख्य अङ्ग बतलाया है मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम्। यतस्तदेव मुक्त्यमङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् / / -ज्ञानार्णव, 6.57 जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न और रसायन को प्राप्त कर मनोवाञ्छित लौकिक सुखों को प्राप्त करता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भव्य जीवों को सर्वोत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है (रयणसार, 164) / भगवती आराधना (735) में भी इसे सर्व दुःखों का हरण करने वाला कहा है-'मा कासि तं प्रमादं सम्मत्ते सव्वदुःखणासयरे।' मोक्षपाहुड में इसे अष्टकर्म क्षयकर्ता कहा है - 183