________________ कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुखस्यैक-गुणस्य च। अस्ति किञ्चन्न कमैकं तद्विपक्षं ततः पृथक् / पं0अ0, 30 1114 जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा।। प्र0 सा0, 60 // 16. सकलविप्रमुक्तः सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जडो, नापि चैतन्यमात्ररूपः / स्वयम्भूस्तोत्र, टीका 5/13 17. पं0 बलदेव उपाध्याय, न्यायदर्शन, भारतीय दर्शन , पृ0 270 स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः / न्यायमञ्जरी, पृ0 77 18. मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम्।। गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः / / नैषधचरित, 17.75 वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् / वैशेषिकोक्तमोक्षस्तु सुखलेशविवर्जितात् / / स० सि0 सं0, पृ0 28 नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदः मोक्षः / त्रिरत्न में सम्यग्दर्शन का स्थान [सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को सम्मिलित रूप से जैनदर्शन में 'त्रिरत्न' शब्द से कहा जाता है। जैसे लौकिक जीवन में 'रत्नों का महत्त्व है वैसे ही आध्यात्मिक जगत् में रत्नवत् बहुमूल्य होने से सम्यग्दर्शनादि को रत्न कहा गया है। ये केवल आध्यात्मिक जीवन के लिए ही उपयोगी नहीं हैं, अपितु लौकिक जीवन में भी इनकी गुणवत्ता असंदिग्ध है।] जैन आगमों में कहीं सम्यग्दर्शन की, कहीं सम्यग्ज्ञान की और कहीं सम्यक्चारित्र की महत्ता बतलाई गई है। परन्तु इतना निश्चित है कि इनमें से किसी का भी महत्त्व कम नहीं है। इसीलिए आचार्य उमास्वामि ने तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (1.1) सूत्र में 'मार्गः' एकवचन का प्रयोग करके तीनों को समान महत्त्व दिया है और स्पष्ट किया है कि जब तक ये तीनों युगपत् नहीं होंगे तब तक मोक्षमार्ग नहीं बनेगा। ये पृथक्-पृथक् कार्यकारी (मोक्षप्रदाता) नहीं हैं। जैनेतर ग्रन्थों में जहाँ कहीं भी किसी एक से मुक्तिलाभ की चर्चा की गई है वहाँ उसके महत्त्व का प्रदर्शन मात्र है। वास्तव में जहाँ सच्ची श्रद्धा या आत्मबोध होता है वहाँ सच्चा ज्ञान और सदाचार भी होता है। इसी तरह जहाँ सच्चा ज्ञान होता है वहाँ सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र भी होता है। सम्यक्चारित्र तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान यद्यपि एक साथ होते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता है और सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता है। अतः सम्यग्दर्शन को उत्कृष्ट कहा है सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होदि णियमेण। तो रयणसयमज्झे सम्मगुणुक्किट्ठमिदि जिणुद्दिटुं॥-रयणसार, 46 'सम्यग्दर्शन के बिना नियम से सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होते। इसीलिए रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन उत्कृष्ट है' ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञानादि सम्यक् नहीं हो सकते जैसे नीव के बिना मकान स्थिर नहीं रह सकता। सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक तथा अकिञ्चित्कर हैं, सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) सहित होने पर वे सभी यथार्थता को प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शन रत्नत्रय का सार है, सुखनिधान है तथा मोक्षप्राप्ति का प्रथम सोपान है। जैसा कि कहा है एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण।। सारं गुणरयणत्तयसोवाणं पढममोक्खस्स।।- दर्शनपाहुड 21 इसी तरह पूज्यपाद स्वामी ने सम्यग्दर्शन की पूज्यता बतलाते हुए ज्ञान और चारित्र के सम्यक्पने का उसे हेतु बतलाया है, 'अल्पाच्तरादभ्यर्हितं पूर्व निपतति। कथमभ्यर्हितत्त्वम् ? ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात्।' (सर्वार्थसिद्धि, 182