________________ में अभाव हो जाता है। जैन ज्ञान और सुख को छोड़कर शेष का अभाव मानते हैं।) का अभाव भी स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि यदि ऐसा माना जाएगा तो आत्मा जड़ हो जाएगा और कोई भी व्यक्ति जड़ (अचेतन) होना नहीं चाहता है। हाँ, इतना अवश्य है कि वहाँ दु:ख के साथ इन्द्रिय-जन्य ज्ञान, सुखादि का भी अभाव हो जाता है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा और मन का संयोग होने पर ज्ञानादि आत्मा के विशेष गुण उत्पन्न होते हैं और मोक्ष में मन का संयोग न होने से ज्ञानादि गुण भी नहीं रहते हैं। सांख्य-योग दर्शन की भी करीब-करीब यही स्थिति है क्योंकि चेतन पुरुष तत्त्व साक्षी मात्र है और बुद्धि (महत्) प्रकृति का विकार (जड़) है। अतः यहाँ भी मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं है क्योंकि वह प्रकृति के संयोग से होता है और मुक्तावस्था में आत्मा के साथ प्रकृति का संयोग नहीं माना गया है। वेदान्त दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में सुख और ज्ञान की सत्ता तो है परन्तु वहाँ एक ही आत्मतत्त्व है। मुक्तात्माओं में अप्रकट आठ गुणों का आविर्भाव जैनदर्शन में सिद्धालय में पुद्गल (जड़ तत्त्व) के परमाणुओं के साथ आत्मा का संयोग तो है परन्तु आत्मा में रागादि का अभाव होने से वे परमाणु कर्मरूप परिणत नहीं होते हैं। अत: पुनर्जन्म नहीं होता है। जैनदर्शन में कर्म मूलतः आठ प्रकार के माने गए हैं जो आत्मा के स्वाभाविक आठ गुणों को ढंक देते हैं। इन कर्मों के हटने पर सभी सिद्धों (विदेह मुक्तों) में निम्न आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। 41. क्षायिक सम्यक्त्व (निर्मल श्रद्धान)- मोहनीय कर्म के क्षय से प्रकट गुण। 2. अनन्तज्ञान (तीनों लोकों का त्रैकालिक पूर्ण ज्ञान)- ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से प्रकट गुण। अनन्तदर्शन (तीनों लोकों के द्रव्यों का अवलोकन)- दर्शनावरणीय कर्मक्षय से प्रकट गुण। 3. अनन्तवीर्य (अतुल सामर्थ्य या शक्ति)- अन्तराय कर्मक्षय से प्रकट गुण। 4. सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व या अशरीरत्व)- नामकर्म के क्षय से प्रकट गुण। 6. अवगाहनत्व (जन्म-मरण का अभाव)- आयुकर्म के क्षय से प्रकट गुण। इस गुण के होने पर एक स्थान पर अनन्त सिद्ध ठहर सकते हैं क्योंकि उनके अमूर्त होने से कोई बाधा नहीं होती। 7. अगुरुलघुत्व (छोटे-बड़े का भेदाभाव, समानता)- गोत्रकर्म तथा नामकर्म के क्षय से प्रकट गुण। 8. अव्याबाधत्व (अनन्त सुख या अतीन्द्रिय अपूर्व सुख / साता-असातारूप आकुलता का अभाव)- वेदनीय कर्म-क्षय से प्रकट गुण। यहाँ इतना विशेष है कि एक-एक कर्मक्षय जन्य गुण का यह कथन प्रधानता की दृष्टि से सामान्य कथन है क्योंकि उनमें अन्य कर्मों का क्षय भी आवश्यक होता है। वस्तुतः आठों ही कर्मों का समुदाय एक सुख गुण का प्रतिबन्धक है। जो केवलज्ञान है वही सुख है। दिगम्बर मान्यतानुसार निर्ग्रन्थ मुनि ही सिद्ध होते हैं परन्तु श्वेताम्बर मान्यतानुसार स्त्री तथा गृहस्थ भी सिद्ध हो सकते हैं। अन्य विशेषताएँ मुक्त होने पर भी वस्तु का जो स्वभाव है उत्पत्ति, विनाश और नित्यता वह मुक्तात्मा में भी है परन्तु वह समानाकार (षट्-गुण हानि-वृद्धि रूप) है। मुक्तों को निरञ्जन, निराकार, निकल, परमात्मा, सिद्ध आदि नामों से भी जाना जाता है। सिद्ध न तो निर्गुण हैं और न शून्य; न अणुरूप हैं और न सर्वव्यापक अपितु आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा चरमशरीर (अर्हन्तावस्था का शरीर) के आकाररूप में रहते हैं। वे सांख्यवत् न तो चैतन्यमात्र हैं और न न्याय-वैशेषिकवत् जड़ अपितु चैतन्यता के साथ ज्ञानशरीरी (सर्वज्ञ) हैं क्योंकि आत्मा ज्ञान-स्वरूपी और चैतन्यरूप है। अतः मुक्तात्मा ज्ञान गुण के अविनाभावी सुखादि अनन्त चतुष्टय से भी सम्पन्न है। उपसंहार इस तरह शुद्ध आत्म-स्वरूपोपलब्धि मोक्ष है जहाँ सभी प्रकार के दु:खों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) का अभाव हो जाता है। इस कथन से सभी आत्मवादीदर्शन सहमत हैं। वहाँ अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख की सत्ता को वेदान्त और जैन स्वीकार करते हैं परन्तु न्याय-वैशेषिक तथा सांख्य में इनके अस्तित्त्व का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि न्यायदर्शन में इन गुणों का मोक्ष में अभाव है" तथा सांख्य में भी ज्ञान और सुख प्रकृति-संसर्ग के धर्म हैं जिनका वहाँ अभाव है। बौद्धों के यहाँ तो आत्मा जिसे वे पञ्चस्कन्धात्मक मानते हैं उसकी चित्त-सन्तति का ही अभाव वहाँ मान लेते हैं जो सर्वथा अकल्पनीय है। वेदान्त में आत्मा को सर्वथा नित्य और व्यापक माना गया है, अत: वहाँ बन्धन और 180