________________ एक अखण्डरूप है और नानात्मक जगत् काल्पनिक या मायिक है। सगुण ब्रह्म उसका तटस्थ लक्षण (आगन्तुक) है और चिदानन्दरूप निर्गुण ब्रह्म उसका स्वरूप लक्षण (तात्त्विक) है। आचार्य शङ्कर माया को त्रिगुणात्मिका, ज्ञानविरोधी, भावरूप तथा अनिर्वचनीय ब्रह्म की अपृथक्भूता शक्ति मानते हैं। इस तरह शाङ्कर वेदान्त में आत्म-तत्त्व परम शुद्ध चैतन्य ब्रह्म का ही रूप है। अत: मुक्तावस्था में जीव ब्रह्मरूप ही हो जाता है। अहं ब्रह्मास्मि' तथा 'तत्त्वमसि' इन महावाक्यों से ब्रह्म का साक्षात्कार होता है / मुक्तावस्था में ज्ञान, सुखादि भी रहते हैं। इस मत में समस्या यह है कि जब सब ब्रह्म रूप है तो वह बन्धन में कैसे पड़ा? और एक के मुक्त होने पर सभी को मुक्त क्यों नहीं माना गया? यदि उसमें अंश की कल्पना करते हैं तो उसका विभु (व्यापक) रूप नष्ट होता है। 7. वैष्णव दर्शन इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच समुदाय प्रमुख हैं(क) रामानुज दर्शन यह दर्शन विशिष्टाद्वैतवादी है। इनके मत में ब्रह्म में सजातीय और विजातीय भेद न होकर स्वगत भेद है, जबकि शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्म तीनों प्रकारों के भेदों से रहित है। यहाँ ब्रह्म के दो अंश हैं- चित् और अचित् / अत: तीन पदार्थ हैं चित्, अचित् और ईश्वर / चित् से तात्पर्य है भोक्ता जीव, अचित् से तात्पर्य है भोग्य जगत् तथा चित्-अचित् विशिष्ट से तात्पर्य है ईश्वर। यह ईश्वर जगत् का अभिन्न-निमित्तोपादान कारण है। यह कारण-व्यापार न तो अविद्या कर्म-निबन्धन है और न कर्मयोगमूलक है अपितु स्वेच्छाजन्य है। जीव तत्त्व अत्यन्त अणु, नित्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, आनन्दरूप, निरवयव, निर्विकार, ज्ञानाश्रय, अजड तथा देह, इन्द्रिय-मन प्राण बुद्धि से विलक्षण है। (ख) माध्व दर्शन16 आनन्दतीर्थ का प्रसिद्ध नाम था 'मध्व'। यह ब्रह्म सम्प्रदाय कहलाता है। इनके मत में 'विष्णु' अनन्त गुण सम्पन्न परमात्मा हैं। 'लक्ष्मी' परमात्मा की शक्ति है। संसारी जीव अज्ञान, मोह, दुःख, भयादि दोषों से युक्त है। ये तीन प्रकार के हैं- मुक्तियोग्य, नित्यसंसारी और तमोयोग्य / ये तीनों क्रमश: उत्तम, मध्यम और अधम कोटि के होते हैं। मुक्त जीवों के ज्ञान, आनन्दादि गुणों में तारतम्य पाया जाता है। जैनदर्शन में इन तीनों प्रकार के जीवों को क्रमशः भव्य, भव्याभव्य और अभव्य कहा है। चैतन्यांश को लेकर ही भगवान के साथ जीव की एकता प्रतिपादित की गई है। (ग) निम्बार्क दर्शन इसे सनत्कुमार सम्प्रदाय भी कहा जाता है। इस मत में जीव अणुरूप तथा संख्या में अनेक हैं। वह हरि का अंशरूप है। अंश का अर्थ अवयव या विभाग नहीं है अपितु शक्तिरूप है। जीव कर्ता भी है और ज्ञान स्वरूप भी है। (घ) वल्लभ दर्शन इस दर्शन को रुद्र सम्प्रदाय भी कहते हैं। जीव ज्ञाता, ज्ञानस्वरूप, अग्नि के स्फुलिङ्ग के समान अणुरूप तथा नित्य है। जीव तीन प्रकार के होते हैं- शुद्ध, मुक्त एवं संसारी। यह भक्तिमार्गीय (पुष्टिमार्गीय) दर्शन है। यहाँ ईश्वर-भक्ति ही सब कुछ है। ब्रह्म क्रीड़ार्थ जगत् का रूप धारण करता है। इनका सिद्धान्त शुद्धाद्वैत कहलाता है। इनके सिद्धान्त में ब्रह्म माया से अलिप्त होने से नितान्त शुद्ध है। (ङ) चैतन्य दर्शन इस मत के प्रमुख थे महाप्रभु चैतन्यदेव तथा उनके शिष्य रूपगोस्वामी। इसे हम अपने कीर्तनों से बङ्ग देश को रसमय तथा भावविभोर करने वाला मत कह सकते हैं। आचार्य शङ्कर के समान ब्रह्म में सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नहीं हैं। ब्रह्म परमात्मा अखण्ड, सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सत्यकाम, सत्यसङ्कल्प आदि अनन्त गुणों से युक्त है। भगवान् का विग्रह (शरीर) तथा गुण उससे भिन्न नहीं है। भाषा की दृष्टि से उनका पार्थक्य किया जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से अचिन्त्य-भेदाभेद है। परमात्मा मूर्त होकर भी विभु है। जीव परिच्छिन्न स्वभाव तथा अणुत्व शक्ति-युक्त है। 8. शैव दर्शन (शैव तन्त्र दर्शन) यहाँ जीव को 'पशु' कहा गया है, परमेश्वर शिव को 'पति', माया रूपी जगत् को 'पाश' कहा गया है। जीव शिव का ही अंश माना गया है परन्तु वह अणुरूप और सीमित शक्ति सम्पन्न है, संख्या में अनेक है। शिवत्व-प्राप्ति होने पर उसमें निरतिशय ज्ञान तथा क्रिया शक्ति का उदय होता है। पासों के तारतम्य के कारण पशु (जीव) तीन प्रकार का होता 175