________________ प्रकार शरीर के गुणों का वर्णन करने पर परमात्मा की भक्ति नहीं होती। 2. व्यवहारनय से भक्ति-अहंदादि (अर्हन्त, सिद्ध आदि पञ्च परमेष्ठियों) या उनके गुणों पर भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना या प्रेम करना व्यवहार भक्ति है। भक्ति सराग सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रावकों को होती है। इसमें भक्त और भगवान् का भेद बना रहता है जिस कारण भक्त आराध्य भगवान् से आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति या मोक्ष की प्राप्ति की कामना करता है। जैसे-भावपाहुड में कहा है ते मे तिहुअणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा। दिंतु वर-भावसुद्धिं दंसण-णाणे/चरित्ते य।।163 / / जो नित्य है, निरञ्जन है, शुद्ध है तथा तीनों लोकों के जीवों द्वारा पूजनीय है ऐसे सिद्ध भगवन्त ! ज्ञान, दर्शन, और चरित्र में श्रेष्ठ भावशुद्धि देवें। पञ्चविंशतिका में भी कहा है त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व / मयि किंकरेत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः / / 20.1 / / अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्यो / तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव प्रलापित्वम् / / 20.6 / / तीनों लोगों के गुरु परमानन्द के एकमात्र कारण है जिनेश्वर! इस मुझ दास के ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो। आप मेरे जन्म-मरण रूप संसार को नष्ट कर दीजिए। यही एक बात मुझे आपसे कहनी है। मैं संसार के दुःखों से अत्यन्त पीड़ित हूँ। अत: मैं यह प्रलाप कर रहा हूँ। प्रारम्भ में भक्ति का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति था, परन्तु वर्तमान में लोग सांसारिक सुखलाभ से जोड़ने लगे हैं जबकि इसे निदान कहा गया है जो त्याज्य है। अन्त में तो निश्चय भक्ति में मोक्ष की कामना भी छूट जाती है और वह पूर्ण वीतरागी होकर आप्तकाम हो जाता है। "मैंने भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया है। उसकी आलोचना करना चाहता हूँ। चारों निकाय के देव सपरिवार दिव्य गन्ध, पुष्प, धूप, चूर्ण, सुगन्धित पदार्थ आदि से नित्य अभिषेक करते हैं, पूजा करते हैं, अर्चना करते हैं, वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं। मैं भी यहाँ रहता हुआ उनकी नित्यकाल अर्चना, पूजा, वन्दना, नमस्कार करता हूँ। फलस्वरूप मेरे दुःखों का विनाश हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और जिनेन्द्र के गुणों की प्राप्ति हो।" (देखें-कुन्दकुन्दाचार्य, भक्ति संग्रह की अञ्चलिका / ) भक्ति की अनिवार्यता और उसका फल-गृहस्थ श्रावक के 6 आवश्यक कर्तव्य बतलाये गये हैं उनमें भक्तिरूप 'देवपूजा' को प्रथम स्थान प्राप्त है - देवपूजा-गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानञ्चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने।। पं.वि. 6.7 / / ये जिनेन्दं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न। निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् / / पं.वि.6.15। प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवता-गुरु दर्शनम् / भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः।। पि.वि. 6.16 / / गृहस्थ के प्रतिदिन करणीय 6 आवश्यक कर्तव्य हैं-देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। जो गृहस्थ भक्तिपूर्वक न तो जिनेन्द्र का दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं और न उनकी स्तुति करते हैं उनका जीवित रहना निष्फल है तथा उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है। वस्तुतः श्रावकों (गृहस्थों) को प्रातःकाल उठकर जिनेन्द्र देव तथा निर्ग्रन्थ गुरु का दर्शन करना चाहिए। भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करके उनसे धर्म-श्रवण करना चाहिए, तदनन्तर ही अन्य कार्य करना चाहिए। आचार्य सोमदेव स्वामी ने भी कहा है अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च। 168