________________ जैनदर्शन में भक्ति क्यों और कैसे? संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए ध्यान, तप, व्रत आदि करना जन-सामान्य के लिए बहुत कठिन मार्ग लगता है। अतः परमात्म-पद की प्राप्ति के लिए 'भक्ति' प्रथम सोपान के रूप में सर्वत्र स्वीकृत है। भक्त जब भक्ति में ऐसा लीन हो जाता है कि उसे ध्याता (भक्त) और ध्येय (परमात्मा) का भेद ही ज्ञात नहीं रहता (अभेद की अनुभूति में डूब जाता है) तब वह भक्ति 'परम समाधि' बन जाती है। वह ब्रह्मलीन हो जाता है, अपने दुःखों को भूल जाता है, खानापीना भी भूल जाता है। उसे संसार के विषय-भोगों से विरक्ति हो जाती है। जैनेतर धर्म के भक्त भगवान् को प्रसन्न करके उनका सामीप्य चाहता है परन्तु जैन भक्त प्रारम्भ में भगवान् का आलम्बन तो लेता है परन्तु बाद में अपनी आत्मा में ही परमात्मा का दर्शन करने लगता है। राग-द्वेष-जन्य कर्म से परिवेष्टित आत्मा जब कर्मबन्धन से रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है तो वही परमात्मा (ईश्वर या भगवान्) बन जाता है। तब उसमें अविनश्वर अनन्त ज्ञान, सुख, वीर्य आदि प्रकट हो जाते हैं। यही मोक्ष की अवस्था है। जैन का आराध्य ईश्वर कौन? जैनदर्शन को अनीश्वरवादी तथा नास्तिक (वेदों को प्रमाण न मानने के कारण) कहा जाता हैं जबकि वह पूर्ण आस्तिक तथा ईश्वरवादी दर्शन है। वह पुनर्जन्म, कर्मवाद, पाप-पुण्य आदि सभी बातें स्वीकार करता है। परन्तु वह अनादि ईश्वर या जगन्नियन्ता नहीं मानता जो इस संसार के प्राणियों की सृष्टि, संरक्षण और संहार करता हो, भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर उस पर दया करता हो, भक्ति न करने या पापाचरण करने वाले से नाराज होकर दण्ड देता हो, पृथ्वी पर पापियों का संहार करने के लिए अवतार लेता हो, जो कभी भी संसार के बन्धन में न रहा हो। जैनदर्शन में मान्य ईश्वर हमारी और आपकी तरह पहले सांसारिक कर्मबन्धनों से युक्त थे, बाद में तप-साधना करके परमात्मा बने। पूर्ण वीतरागी आप्तकाम (पूर्ण तृप्त) होने से वे न तो भक्ति से प्रसन्न होते हैं और न निन्दा से अप्रसन्न / भक्तों की सहायता करने और दुष्टों का संहार करने के लिए वे पृथ्वी पर अवतार भी नहीं लेते हैं। वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आप्तकाम, अतीन्द्रिय, अशरीरी, अरूपी, असीम सुख-वीर्य सम्पन्न होकर अपने शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप से लोकान्त (सिद्धालय) में विराजमान हैं। हम भी साधना द्वारा ईश्वर बन सकते हैं क्योंकि जो कर्मबन्धन से रहित हैं वे ईश्वर हैं। वे सभी आराध्य हैं। भक्ति क्यों प्रश्न-यहाँ एक गम्भीर प्रश्न है कि जब आपका ईश्वर भक्तों की कोई मदद नहीं करता है तो जैनभक्त उनकी भक्ति क्यों करते हैं? जैन शास्त्रों में उनकी भक्ति, पूजा, उपासना करने को आवश्यक क्यों कहा है? उत्तर-जैनदर्शन में भक्ति विविध रूपों में दिखलाई पड़ती है। भक्ति, स्तव, स्तुति, पूजा, अर्हा, उपासना, आराधना, भजन, मख, मह, विधान, याग, क्रतुः, सपर्या, स्तोत्र, जप, इज्या, अध्वर, चालीसा, यज्ञ, हवन आदि भक्ति के ही रूप हैं। ग्रन्थारम्भ में किया जाने वाला मङ्गलाचरण, देवदर्शन, नाम स्मरण, गुण-सङ्कीर्तन, स्व स्वरूप चिन्तन, मन्दिर-निर्माण, महामन्त्र जपोकार, सम्यग्दर्शन (धर्म में श्रद्धा) आदि भी भक्ति के विविध रूप हैं। भक्ति के दो रूप-जैनदर्शन में भक्ति को दो रूपों में विभक्त करके चिन्तन किया गया है-निश्चयनय से और व्यवहारनय से। 1. निश्चयनय की दृष्टि से भक्ति-वीतराग भाव से शुद्ध आत्म तत्त्व की भावना करना निश्चय भक्ति है जो सम्यग्दृष्टियों को ही होती है। निज परमात्मतत्त्व के सम्यक श्रद्धान-अवबोध-आचरण रूप शुद्ध रत्नत्रय-परिणामों का जो भजन है, आराधना है वही भक्ति है। निश्चय भक्ति ही वास्तविक भक्ति है। इसमें जो परमात्मा है, वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है। अतः मैं ही मेरे द्वारा उपासना किये जाने योग्य हूँ, अन्य कोई नहीं। इस तरह आराध्य-आराधक भाव की एकता रूप भक्ति है। आराध्य पाँचों परमेष्ठी वास्तव में अपनी आत्मा में हैं, अत: वे ही शरण हैं। अर्थात् परमेश्वर (शुद्ध आत्मरूप) के साथ समरसता होना निश्चय भक्ति है। जैसे नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन नहीं होता उसी 167