________________ यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः / / (अमितगति श्रावकाचार 1.55) जो गृहस्थ अर्हन्त-सिद्धादि देवों की पूजा तथा मुनियों की उपचर्या (सेवादि) किये बिना अन्न का भक्षण करता है वह घोर अन्धकार वाले सातवें नरक की कुम्भीपाक विल में उत्पन्न होकर महान् कष्टों को भोगता है। पूजा-भक्ति के फल का कथन करते हुए भगवती-आराधना (745, 749) में स्पष्ट कहा है एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेइ / / पुण्णाणि य पूरेदुं आसिद्धि-परं परसुहाणं / / वीयेण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमब्मएण विणा। आराधणमिच्छंतो आराधण-भक्तिमकरंतो।। अकेली जिणभक्ति से दुर्गत का निवारण होता है। पुण्य की अत्यधिक वृद्धि होती है। मोक्ष प्राप्ति के पूर्व चक्रवर्ती, अहमिन्द्र आदि पदों की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति आराधना रूप भक्ति के बिना मुक्ति चाहता है, वह बीज के बिना धान्यप्राप्ति और मेघ के बिना जलवृष्टि चाहता है। (पञ्चविंधतिका 6.15-16 तथा देखें वसुनन्दि श्राव का चार 478) सर्व कष्ट निवारक जैनदर्शन का महामन्त्र णमोकार (णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धार्थ, णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सब्ब साहूणं) भी भक्ति का रूप है जिसे जैनी प्रतिदिन तीनों काल भजता है अरहंत णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सब्बदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण / / / इस तरह जैनदर्शन में व्यवहार भक्ति की बहुत विस्तार से प्ररूपणा की गई है। वस्तुतः सामान्यजन के लिए भक्ति ही उस परमब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति का सरलतम प्रथम उपाय (सोपान) है। यही व्यवहार भक्ति जब निश्चयभक्ति रूप ध्यान में परिणत हो जाती है तो उसे अभीष्ट मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसीलिए रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) को सम्मिलित रूप से मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है। सम्यग्दर्शन जो श्रद्धा-भक्ति का प्रतिरूप है, उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है। प्रसन्न होने का अर्थप्रश्न- जब आपके भगवान् वीतरागी हैं तो उनकी भक्ति करते हुए उन्हें प्रसन्न हों', 'हमें बोधिलाभ देवें' आदि क्यों कहा गया है? उत्तर - 'प्रसन्न हों' यह कथन व्यवहार में कहा जाता है। आप्तपरीक्षा की टीका में स्पष्ट कहा गया है-वीतराग परमेष्ठियों में जो प्रसाद गुण कहा गया है वह उनके शिष्यों (भक्तों) का प्रसन्न मन होना ही है क्योंकि वीतरागियों में तुष्टयात्मक प्रसन्नता सम्भव नहीं है, क्रोध भी सम्भव नहीं किन्तु जब भक्त आराधक प्रसन्न मन से उनकी उपासना करता है तो उसे भगवान् की प्रसन्नता कह दिया जाता है, जैसे प्रसन्न मन से औषधि का सेवन करने से आरोग्यलाभ होने पर उसे उस औषधि का फल कहा जाता है। उसी प्रकार भगवान् की भक्ति करने पर भक्त के भावों (परिणामों) में निर्मलता आती है और उसके प्रभाव से पापकों का आवरण हटता है। और उसे अभीष्ट फल मिलता है। उन्हें उपचार से व्यवहार में प्रसन्न होना' आदि कहा जाता है। ऐसा ही मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है- अर्हन्त को उपचार से 'अधम उद्धारक' आदि कहा गया है, फल अपने ही परिणामों का ही है। इसी तरह धवला में भी कहा है-'जिन-वन्दना रूप भक्ति पापों की विनाशक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर उनकी वीतरागता के अभाव का प्रसङ्ग होता है। अतः परिशेषन्याय से जिन गुण-परिणत भावों को पापविनाशक मानना चाहिए। चि 1. तीर्थकर भक्ति (चतुर्विंशति तीर्थकर स्तव)-इसमें 24 अर्हन्त तीर्थङ्करों के गुणों की स्तुति करके उनके गुणों को ___ अपने में प्रकट होने की कामना की गई है। वस्तुत: ये ही हमारे साक्षात् मार्गदर्शक हैं। 2. सिद्ध भक्ति-निर्वाण को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों की स्तुति है। 3. श्रुत भक्ति (शास्त्र भक्ति)-इसमें जिनोपदिष्ट आगम ग्रन्थों (श्रुत) की स्तुति है। क्योंकि उनसे ही हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता है। 4. चारित्र भक्ति-सामायिकादि 5 प्रकार के चारित्र तथा पाँच महाव्रतों की भक्ति क्योंकि ये ही मोक्षप्राप्ति के साधन हैं। 169