________________ सिद्ध-सारस्वत बौद्धदर्शन ग्रूप बन्द कर दिया जाए। छात्र इसमें प्रवेश न लेवें। 4-5 साल तक तो ग्रूप निरन्तर चलता रहा परन्तु उसके बाद छात्रों द्वारा वह ग्रूप न लेने पर यह ग्रुप केवल सिलेबस में रह गया। वे इस ग्रूप को सिलेबस से भी हटाना चाहते थे। उनके मन में यह था कि ये ग्रूप नहीं रहेगा तो जैन को प्रमोशन नहीं मिलेगा। विभागाध्यक्ष मेरे गुरु प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने इस ग्रूप के चलते रहने में बड़ी मदद की। उन्होंने ही इस ग्रूप को प्रारम्भ कराया। मेरे गरु के भी वे लोग विरोधी थे जबकि उन्होंने ही उनकी नियुक्तियाँ की थीं। चूंकि मेरा पद मूलतः संस्कृत लेक्चरर का था। अत: वे लोग जैन-बौद्ध दर्शन ग्रूप बन्द कराने में सफल हो गए। परिणाम स्वरूप मुझे संस्कृत के अन्य विषयों को जो मेरे विषय नहीं थे, उन्हें पढ़ाना पड़ा। यद्यपि अन्य विषयों के विशेषज्ञ अध्यापक थे परन्तु अध्यक्ष उन्हें नहीं देना चाहते थे। पूर्व में जो इस विषय के अध्यापक थे वे सेवानिवृत्त हो गए थे। मुझे तीन-चार माह पूर्व इस ग्रन्थ (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली) को पढ़ाने का संकेत मेरे विभागाध्यक्ष गुरु ने कर दिया था। मैंने भी चैलेञ्ज स्वीकार किया। उस ग्रन्थ के चार खण्ड थे। मैंने चार अध्यापकों से पृथक्-पृथक् खण्ड पढ़ें और नव्य न्याय की शब्दावली (प्रतियोगिता, अनुयोगिता, अवच्छेदक आदि) को समझा क्योंकि उस ग्रन्थ में इस भाषा का सम्मिश्रण था। जनवरी से मार्च के तीन माह में मैंने एम.ए. अंतिम वर्ष के दर्शन ग्रूप के छात्रों को वह ग्रन्थ अतिरिक्त पीरियड लेकर पूरा पढ़ाया। छात्र बहुत संतुष्ट हुए। मैंने पहले उन्हें नव्य न्याय की भाषा-शैली बतलाई फिर विषय का तात्पर्यार्थ बतलाया इसके बाद ग्रन्थ की पंक्तियाँ पढ़ाई। सेवानिवृत्त अध्यापक के पढ़ाने की शैली से छात्र समझ नहीं पाते थे जबकि वे बड़े विद्वान् थे। इसलिए मुझे प्रारम्भ से पढ़ाना पड़ा। मैं भी इस विषय से डरता था जो समझ में आ गया। इसी प्रकार प्रमोशन के बाद मीमांसा दर्शन का क्लिष्ट ग्रन्थ (मीमांसान्यायप्रकाश) पढ़ाना पड़ा। यह ग्रन्थ भी मेरे लिए नया था परन्तु इसका प्रारम्भिक ज्ञान था। इस विषय के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् वाराणसी में श्री पट्टाभिरााम शास्त्री थे। उन्होंने भी मेरी प्रशंसा की तथा मेरा एक लेख जो मीमांसा दर्शन पर (निषेध-मीमांसा) था अपने अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित किया। इसमें भी प्रकाशित किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त मुझे व्याकरण, भाषाविज्ञान, साहित्य शास्त्र, शिलालेख, वेद, उपनिषद्, पालि, प्राकृत आदि पढ़ाने पड़े जिससे मैं कई विषयों का ज्ञाता हो गया और चिन्तन का रास्ता खुल गया। परिणाम स्वरूप मैंने न्यायदर्शन के ग्रन्थ तर्क संग्रह पर टीका लिखी। संस्कृत व्याकरण पर संस्कृत-प्रवेशिका तथा प्राकृत व्याकरण पर प्राकृत-दीपिका ग्रन्थ लिखे। तीनों ही छात्रों और विद्वानों में बहुत विश्रुत हुए। (17) सेवानिवृत्ति पर विभागीय 'नो ड्यूज' कुलपति द्वारा सेवानिवृत्ति के समय विरोधी गुट का पूर्ण अधिकार विभाग पर हो गया और उन्होंने 'नो ड्यूज' देने से मना कर दिया। विभागीय पुस्तकालय का रजिस्टर गायब कर दिया गया और मुझ पर दोषारोपण कर दिया। पुस्तकालय की पुस्तकें जमा नहीं की। पुस्तकालय का चार्ज लेने से मना कर दिया। अन्ततः कुलपति के आदेश पर उन्हें पुस्तकालय का चार्ज लेना पड़ा, वह भी पूरे विवरण के साथ। इसके बाद कुलपति ने स्वयं मेरा 'नो ड्यूज' करके मेरी ग्रेच्युटी देने का आदेश पारित किया तथा नवीन संस्कृत-विभागाध्यक्ष को फटकारा। बी.एच.यू. के इतिहास में यह पहला केस बना। आदरणीय कुलपति प्रो. पंजाबसिंह जी मेरे लिए देवदूत बने। (18) रात्रि भोजन त्याग का फल विश्वविद्यालय की चयन समितियों में जब साक्षात्कार की प्रक्रिया चलती थी तब कभी-कभी रात्रि भी हो जाती थी जिससे मेरे रात्रि में भोजन न करने के नियम से कुलपति साक्षात्कार के माध्य में ही मेरी भोजन व्यवस्था अलग से करा देते थे। इसी तरह कई बार विश्वविद्यालयीय रात्रि डिनर में जाना पड़ता था तब मैं वहाँ घर पर भोजन करके ही जाता था। शादियों में जाता था तो वहाँ भी भोजन करके जाता था। अजैन लोग कहते थे कि जैन को बुलाने में कोई खर्च नहीं है। कुछ लोग आग्रह करके दिन में व्यवस्था कर देते थे। सङ्कल्प है तो रास्ता निकल ही आता है। (19) स्टंट तथा अन्य दुर्घटनाएँ - (क) गंगा नदी में कूदा - जब में स्याद्वाद महाविद्यालय में पढ़ता था तब अगस्त-सितम्बर में जब गंगा बाढ़ पर थी तब भदैनी घाट पर गंगा में कूदा और जल के प्रवाह के विपरीत तैर कर किनारे आया। कई मल्लाहों के लड़कों को ऐसा करते देखकर अति उत्साह में मैंने उनका अनुकरण किया जबकि मैं तैरने में ज्यादा एक्सपर्ट नहीं था। संयोग से कुछ अनहोनी नहीं हुई। तैरना मुझे मेरे पिताजी ने बचपन में नोहटा की सुनार नदी में सिखाया था। वहाँ तो वह रक्षक थे तथा स्वयं 141