________________ सिद्ध-सारस्वत का सरलीकरण करना सिखाकर चिन्तन की दिशा बदल दी गई। मैं तर्कणा बुद्धि से विषय को सरल, स्पष्ट और सुबोध बनाने की कला सीख गया। (6) नव्य न्याय की शैली समझने के योग्य बनाया पं. मूलशङ्कर शास्त्री जी ने। उन्होंने पुत्रवत स्नेह देकर खान-पान की शुचिता भी समझाई। (7) मेरी धर्मपत्नी जिसने मुझे नाते-रिस्तों, त्योहारों तथा धार्मिक क्रियाओं की अहमियत का बोध कराया। (8) मैंने पूर्व मध्यमा (हाई स्कूल समकक्ष) के बाद इण्टर कामर्स में एडमीशन लिया जबकि मैं हाईस्कूल के विषयों से पूर्णतः अनभिज्ञ था। अतः जो हाईस्कूल पढ़कर आये थे वे मेरे से बहुत आगे थे परन्तु छ:माही परीक्षा तक मैं सबसे आगे आ गया और कालेज में मैं अध्यापकों का चहेता बन गया। परन्तु छ:माही परीक्षा के बाद मैंने प्राइवेट इण्टर परीक्षा का फार्म कामर्स छोड़कर कला विषयक विषयों के साथ भर दिया और मैं उत्तीर्ण (द्वितीय श्रेणी से) हो गया। सब मेरे साथी अचम्भित थे क्योंकि किसी को पता नहीं था इस परीक्षा बावत्। इसके बाद बी.एच.यू. में प्रवेश लेते ही मेरी अध्ययन विषयक रुचि बढ़ गई। (9) बी.ए. तक मैं न तो फुलपैन्ट पहिनता था और न साईकिल चलाता था। एक बार फुलपैन्ट पहिनकर कालेज गया तो वहीं कालेज में बदल दिया। एम. ए. में आने पर साईकिल खरीद ली और फुलपेन्ट भी। अध्यापन काल में बहुत समय बाद स्कूटर और कार चलाना सीखा। (10) सेवानिवृत्ति के बाद दो नई विधायें सीखीं - संस्कृत विद्वान् होने से ज्योतिष तथा आधुनिक दिनचर्या हेतु संगणक। स्पोर्ट्स में अभिरुचि __ पढ़ाई के साथ स्पोटर्स में भी गहरी रुचि थी। कई तरह की दौड़, कुस्ती, मलखम्ब, कबड्डी, वालीवाल, हाकी, वेडमेंटन आदि खेलों में सक्रियता थी। कुस्ती, कबड्डी, दौड़, मलखम्ब आदि में कई बार पुरस्कृत हुए। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में हमारी कबड्डी टीम बहुत पापुलर थी जिसे वहाँ के कुलपति भी देखने आया करते थे। बाधा-दौड़, अमहरुद दौड़, बोरा दौड़ा, लंगडी दौड आदि सभी में मेरा प्रतिनिधित्व रहा है। परिवार में परस्पर प्रेमभाव - हमारा परिवार एक आदर्श परिवार माना जाता है। भाई-भाई में, भाई-बहिन में, पति-पत्नी में, माता-पिता के साथ सन्तानों का प्रेम जैसा पूर्व में था वैसा ही आज भी है। सब परस्पर एक-दूसरे का पूरा ध्यान रखते हैं। हमारे परिवार में आज भी पैसों के खर्च को लेकर कोई हिसाब किताब नहीं होता, कोई भी खर्च करे। हमारा बहिनों से तथा उनके बच्चों आदि से भी परम स्नेह है। इसका कारण मैं समझता हूँ कि मैंने अपने पिता को (माता तो थी नहीं) अंतिम समय तक उनका आदर तथा वैयावृत्ति की थी। सर्विस के कारण मैं उनके पास तो नहीं रह सका और वे मेरे पास स्थायीरूप से नहीं रहे। संभवत: इसी कारण मेरी सन्तानें मेरे से दूर रह रही हैं, सर्विस के कारण। यही एक कष्ट है परन्तु वे वहाँ रहकर भी सहयोग करते रहते हैं। वे सब अपने पास बुलाते हैं। परन्तु हम दोनों अभी नहीं जाना चाहते। वाराणसी से बेटी के शहर भोपाल में आकर अब जाकर व्यवस्थित हो पाए हैं परन्तु वाराणसी की याद बहुत आती है। यहाँ आने से मेरी शैक्षणिक गतिविधियों में रुकावट आ गई है। अब समझ में आ रहा है कि वृद्धावस्था में कोई व्यक्ति अपना मूल स्थान (कर्मस्थली) क्यों नहीं छोड़ना चाहता है। परिवार में परस्पर प्रेम बना है और जब आवश्यकता होती है तो वे आ जाते हैं। जब अशक्त होंगे तब देखा जायेगा। बेटी और एवं बहुयें भी बहुत स्नेह रखती हैं। पोतियाँ और नातिनें भी बहुत चाहती हैं। ऐसा ही प्रेमभाव परस्पर बना रहे यही भावना है। चोरी का धन वापस पाया - एक बार जब मैं वाराणसी में अपना किराए का मकान बदल रहा था। (रवीन्द्रपुरी से गुरुधाम) तो एक टालीमेन ने मौका पाकर मेरी पत्नी के जेबर और कुछ रुपयों पर हाथ साफ कर दिया। सामान न मिलने पर दो दिन बाद पता चला कि पत्नी का पर्स चोरी हो गया है। विचार-विमर्श के बाद उस टाली सञ्चालकों पर सन्देह हुआ। योजनानुसार मैंने उसी स्थान पर गया जहाँ से उन्हें भाड़े पर लाए थे, संयोग से दोनों व्यक्ति वहाँ मिल गए। मैंने उनसे कहा कि आप दोनों ने हमारा सामान ट्रांसफर किया था परन्तु वह मकान ठीक नहीं है, मकान मालिक गुण्डा टाईप का है जिससे पास के दूसरे मकान में सामान ट्रांसफर करना है। अभी सामान खोला नहीं गया है। आप दोनों चलो। दोनों संयोग से तैयार हो गये। मैं उन्हें साथ में लेते गया। आने पर बाहर का दरबाजा बंद करके धमकी देकर पूछताछ की तो एक ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया क्योंकि उसे पता था कि मकान-मालिक थाने में बंद करा देगा, जहाँ बड़ी मार पड़ेगी। उसके स्वीकार करने पर दूसरे व्यक्ति को छोड़ दिया गया। अपराधी से कहा तुम्हें इनाम देंगे यदि वह पर्स वापस 148