________________ सिद्ध-सारस्वत कर दोगे। उसने कहा घर पर रखा है। तब मैं अकेले उसके साथ उसके घर गया। उसने सोने के स्वर्णाभूषण देकर कहा कि पर्स हमने फेंक दिया है और रुपया खर्च हो गये हैं। मैं अकेले वहाँ गया साईकिल से, अपरिचित स्थान था सो तुरन्त स्वर्णाभूषण लेकर चुपचाप वापस आ गए। पैसों बावत् कहा वह तुम्हारा इनाम समझ लेना। हम रिपोर्ट नहीं करेंगे। डर था कहीं कोई और छीन सकता है, उसका इलाका है परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ, वह भी डरा हुआ था। दूसरे दिन वह पैसा लेकर आया रिपोर्ट के भय से तो उससे कहा रख लो। इस तरह मैंने अपनी पत्नी के स्वर्णाभूषण प्राप्त कर लिए। अपनी माँ मानकर सास की सेवा की और रक्तदान भी किया - मेरी सास विधवा थीं। उनकी एकमात्र पुत्री थी जिससे उनकी सेवा करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता था। अपनी स्वयं की मता की तरह उनकी सेवा करते थे। वे प्रायमरी स्कूल में शिक्षिका थीं। (1) एक बार शिखर जी कुछ लोगों के साथ गई थीं वहाँ शिखर जी के पहाड़ पर गिर पड़ी जिससे उनके हाथ की कलाई चूर-चूर हो गई। उन्होंने फिर भी दर्शन यात्रा पूरी की और बनारस आ गई। वहाँ घर पर मैं नहीं था मेरी पत्नी ने डॉक्टर को दिखाकर प्लास्टर चढ़वाया और मुझे को सूचना भिजवाई। मैं तुरन्त अपनी यात्रा बीच में छोड़कर वाराणसी आ गया और उनका ठीक से इलाज कराया। उनका हाथ पूरा ठीक होने पर दमोह भेजा। डॉ. ने कहा था अब ये इस हाथ से रोटी नहीं बेल सकेंगी, मगर व्यवस्थित फिजियोथिरेपी कराने से सब काम करने लगीं। (2) एक बार पेट का आपरेशन काराया जिसमें मैंने अपना खून दिया और वाराणसी में बी.एच.यू. में इलाज कराया। परन्तु वे स्कूल की वजह से जिद्द करके देवरी (बडी) आ गई। वहाँ ठीक से देखरेख न होने से घाव पक गया बहुत परेशानी के बाद घाव ठीक हो सका। (3) वाराणसी में ही उनकी दोनों आँखों का मोतियाबिन्द का आपरेशन कराया ठीक से सेवा होने से विना चस्मे के पढ़ने लगीं। वे बहुत स्वाध्याय प्रेमी थीं। अबकी बार घर नहीं जाने दिया गया। (4) एक बार वह घर पर ही दमोह में सीढ़ी से गिर गई और हाथ की हड्डी टूट गई उसका भी इलाज कराया। जब भी उनके पास जाते थे तो दामाद के रूप में उनसे मैं पैसा आदि नहीं लेता था, जिद्द करने पर ग्यारह रुपया लेते थे बस। उनका सामान खरीदकर रख आते थे। हिसाब नहीं करते थे। वे मेरा इंतजार करती थीं कि दामाद आकर हमारी समस्यायें सुलझा देवें। मेरे आत्मीय जिनकी विशेष याद आती है वाराणसी में मेरे मित्र जिनका मेरे साथ पारिवारिक सम्बन्ध रहा तथा जिन्होंने मेरे सुख-दुःख की घड़ियों में सहयोग किया उनको मैं याद करना चाहता हूँ - (1) मित्र प्रो. डॉ. नरेन्द्र कुमार सामरिया एवं प्रो. डॉ. जयकुमार सामरिया - ये दोनों मेरे सगे भाई से कम नहीं हैं। मुझे या मेरे परिवार को जब किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती थी तो आप पूर्ण तत्परत: से सहयोग करते थे। आज भी तैयार रहते हैं। सभी बच्चों की शादी की पूरी व्यवस्था डॉ. जयकुमार सामरिया ने सम्हाली। फ्लेट जब खरीदा तो समस्त औपचारिकतायें (रजिस्ट्री आदि) आपने ही कराकर हमें निश्चिन्त रखा। बीमारी में तो वे मेरे घरेलू डाक्टर थे। तीज-त्योहार बगैरह हम तीनों परिवार एक साथ मिलकर मनाते रहे। भोपाल आ जाने के बाद उनकी याद बहुत आती है, फोन पर ही सुख-दुःख बाँट लेते हैं। (2) वाराणसी में ही हमारे कुछ अन्य आत्मीय मित्र थे जिनके साथ हमारे पारिवारिक सम्बन्ध थे। सुख-दुःख में साथ निभाते थे। उनमें से कुछ नाम हैं- डॉ. सागरमल जैन, प्रो. कमलेश कुमार जैन, प्रो. फूलचन्द प्रेमी, प्रो. अशोक जैन, प्रो. डी.एन.तिवारी, प्रो देवनाथ पाण्डेय, श्री जमना लाल जी, श्री ध्रुवकुमार जैन, श्री अभय कुमार जैन, श्री जयप्रकाश जैन, पं. शीलचन्द, डॉ. प्रेमचन्द नगला, प्रो. गोपबन्धु मिश्र, प्रो. उमा जोशी, विवेकानन्द आदि। (3) पं. विमल कुमार सोंग्या सपरिवार-संभवत: ये हमारे पूर्वभव के भाई हैं। इनकी कृपा से ही यह अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। (4) हितैषी गुरुजन - प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य, प्रो. वीरेन्द्र कुमार वर्मा, पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री, पं. डॉ. पन्नालाल शास्त्री, पं. कैलास चन्द्र शास्त्री, पं. दरबारी लाल कोठिया, पं. अमृतलाल शास्त्री, पं. मूलशङ्कर शास्त्री, प्रो. खुशाल चन्द गोरावाल, प्रो. उदयचन्द जैन, पं. सूर्यनारायण उपाध्याय, प्रो. वागीश शास्त्री, प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय, प्रो. पंजाब सिंह, प्रो. सत्यव्रत द्विवेदी, प्रो. रेवाप्रसाद द्विवेदी, पं. फूलचंद शास्त्री, डॉ. एन. के तैलङ्ग, पं. हीरावल्लभ शास्त्री, डॉ. आर.आर. द्रविड, डॉ. डी.सी.गुहा, पं. भोलानाथ, पं. रणवीर सिंह आदि। 149