________________ सिद्ध-सारस्वत भोजन बनाते समय या भोजन करते समय यदि कोई उन्हें छू लेता था तो फिर वे धुले शुद्ध कपड़े बदलकर पुन: नया भोजन बनाती थीं। यदि कोई कुंए के पाट पर आ जाता था तो वे पुनः पूरा पाट धोकर ही जल भरकर लाती थीं। जल से धुली लकड़ी से भोजन पकाती थीं। अर्थात् शुद्धता के साथ छुआछूत बहुत मानती थीं। दादा जी (स्व. जगन्नाथ प्रसाद) के स्वर्गवास के बाद मेरे पिताजी 10 वर्ष की अवस्था में अकेले ही पढ़ने के लिए जबलपुर चले गए। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। किसी तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल से कक्षा चार पास की, तदुपरान्त हिन्दी माध्यम के स्कूल से सातवीं कक्षा (मिडिल) उत्तीर्ण की। इसके बाद वहीं नार्मल ट्रेनिंग दो वर्ष तक की। पहले सातवीं के बाद नार्मल ट्रेनिंग कर सकते थे। नार्मल ट्रेनिंग में 12 रुपया प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलती थी क्योंकि पिताजी के अच्छे अंक आए थे। रु. 12/- में से 3/- प्रतिमाह खर्च करते और रु. 9/- प्रतिमाह बचत करते थे। स्ट्रीट लाईट में खंबे के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे। एक बार उन्हें मोतीझिरा का तेज बुखार हो गया तो सरकारी नल के नीचे बैठकर ज्वर की गर्मी शान्त करने लगे। उस समय सस्ते का जमाना था, ज्यादा पैसा नहीं था सो एक पैसे की पकौड़ी लेकर इमली की चटनी के साथ खाकर प्राय: दिन गुजार देते थे। खाना-पीना ठीक न होने के कारण एक समय परीक्षा के दौरान गस्त (चक्कर, बेहोशी) आया और जमीन पर गिर पड़े। परीक्षा सुपरिन्टेंडेन्ट ने उन्हें श्री मुन्नीलाल के घर भिजवा दिया। वे ही उनके संरक्षक थे और पिताजी उन्हें पितृतुल्य मानते थे। देशी साधारण उपचार से पिताजी ठीक हो गए। मुन्नीलाल जैन के पिता थे श्री रामलाल जैन तथा रामलाल जी मेरे पिताजी के रिश्ते में मामा लगते थे। पिताजी के दूसरे मामा थे गोरेलाल सीताराम खजरी वाले। इनके बारे में जानकारी नहीं है। रामलाल जी के दो पुत्र थे- नत्थूलाल (अविवाहित रहे) और मुन्नीलाल। मुन्नीलाल की एक कन्या थी नाम था भागवती। श्रीमती भागवती जैन का विवाह श्रीनारायण प्रसाद के साथ हुआ था परन्तु दुर्भाग्यवश विधवा हो गई और वह अपने पिता श्री मुन्नीलाल के पास रहने लगी। श्रीमती भागवती के पिता की मृत्यु के बाद कालान्तर में मेरे पिताजी ने उसे अपने घर शरण दे दी और वह उनके यहाँ रहकर पिताजी के कार्यों में सहायता करने लगी। मेरे पिताजी के स्वर्गवास (10.11.1986) के बाद अकेली पिताजी के मकान में रहकर भगवद्भक्ति में लीन हो गई। उसकी जीविका निर्वाहार्थ मैंने (सुदर्शनलाल) कुछ फिक्स डिपाजिट बैंक में करा दिया जिसके ब्याज से वह अपनी आजीविका चलाने लगी। आवास था ही तथा बीच-बीच में बनारस से आकर सहयोग करता रहा। कॉलोनी के लोग भी उसे सहयोग करते थे क्योंकि वे उसे बहुत स्नेह करते थे। मृत्यु के समय जब वह बहुत बीमार हो गई तो उसने लोगों से कहा- भैया सुदर्शन को बुला दो। मैं सूचना मिलते ही सपत्नीक दमोह आया और उनसे बात की जिससे वह प्रसन्न हो गई। परन्तु अगले दिन 26.7.2012 को उनका स्वर्गवास हो गया। मैंने मृत्यु संस्कार सम्बन्धी समस्त कार्य विधिवत् सम्पन्न किए। शान्ति विधान, दान आदि कार्य भी किए। पिताजी द्वारा बहिन, भाई, और स्वयं का विवाह एक समय पिताजी की गरीबी का आलम यह था कि जूता खरीदने के लिए पैसा नहीं थे। वे पैरों के तलुवों में पत्ते बांधकर गर्मी में चला करते थे। नार्मल ट्रेनिंग के बाद प्रायमरी स्कूल में नौकरी मिल गई। दो वर्ष पश्चात् अपनी बहिन सुन्दरीबाई की शादी नोहटा निवासी (दमोह जिला) श्री ब्रजलाल बड़कुल के यहाँ कर दी। इस शादी में रु. 1000 का कर्ज हो गया। इसके बाद सन् 1930 में (25 वर्ष की उम्र में) पिताजी ने स्वयं की शादी मञ्जला गाँव (गनेशगंज स्टेशन, सागर जिला, स्टेशन से 14 कि.मी. दूर) में श्री मूलचंद की कन्या सरस्वती से की। फलस्वरूप (रु. 1200) का कर्ज और बढ़ गया। इसके बाद भाई माधव प्रसाद की शादी कटनी में टोडरमल जी के यहाँ उनकी पुत्री सुभद्रा से की। कर्ज बढ़ता गया जिसे दोनों भाईयों ने मिलकर चुका दिया। जब पिताजी लखरौनी (पथरिया से 3 कि.मी. दूर) में पढ़ा रहे थे तो अपनी गरीबी देख मेरी माता श्रीमती सरस्वती देवी को मञ्जला भेज दिया। वही मेरा जन्म हुआ। पिताजी की संतानें : उनका जन्म और माता जी का स्वर्गवास पिताजी की शादी के एक वर्ष बाद उनकी अधांगिनी श्रीमती सरस्वती देवी ने वि.सं. 1988 (दिसम्बर 1931) में मार्गशीर्ष वदी 4 को रविवार के दिन (शनिवार की रात्रि 12.30 के आस पास) एक कन्या रत्न को जन्म दिया। उस समय महादशा शनि की थी पुष्य नक्षत्र था, सिंह लग्न थी और राशि थी कर्क। भगवान् महावीर की माता जी के नाम पर उसका नाम त्रिशला (राशि नाम हेमलता) प्रसिद्ध हुआ। इसके दो वर्ष बाद वि.सं. 1990 जनवरी 1933 में माघवदी तेरस को शनिवार के दिन रात्रि में 5 बजे द्वितीय कन्या का जन्म हुआ। उस समय मूल नक्षत्र था, राशि थी धनु और महादशा केतु की थी। वह शान्तिदेवी के नाम (राशि नाम योजिता) से विख्यात हुई। दो वर्ष के उपरान्त वि.सं. 1992 में भादों वदी 133