________________ सिद्ध-सारस्वत अपने सरल और सुमधुर व्यवहार से मनोरमा परिवार (ससुराल के सदस्यों) तथा समाज में अच्छी पैठ बना ली। शादी के बाद जब मैं पहली बार अपनी ससुराल गया तो छोटी-छोटी सालियों ने प्रथम स्वागत करते हुए मुझे चायपीने दी, जो वस्तुतः कालीमिर्च की काढ़ा जैसी थी। मैंने उसे पूरी पी ली जिससे उनका आश्चर्य हुआ और उनका मंसूबा फेल हो गया। शादी के बाद जब मनोरमा वाराणसी आई तो पं. दरबारी लाल कोठिया को अपने व्यवहार से प्रभावित कर लिया। उन्होंने बहू का सम्मान दिया। डीन के रूप में कार्य - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय ने की थी। विश्व प्रसिद्ध इस आवासीय विश्वविद्यालय में कई सङ्काय हैं जिनमें कला सङ्काय एक बड़ा सङ्काय है। इसका डीन 23 विभागों का प्रमुख होता है। ऐसे सङ्काय का मैं 1 फरवरी 2004 में डीन बनाया गया। इस सङ्काय का डीन बनना कई चुनौतियों से भरा होता है। शिक्षा के साथ छात्रों की समस्याओं से रुबरू होना पड़ता है। मैंने छात्र और अध्यापकों के साथ कुशलता पूर्वक सामञ्जस्य बैठाया। मेरे आफिस के दरवाजें हमेशा खुले रहते थे। मुझे पूर्ण विश्वास था कि भगवान् महावीर, महात्मा गांधी और मालवीय जी की सत्य एवं अहिंसात्मक नीति पर चलने वाला कभी असफल नहीं हो सकता। इसी का परिणाम था कि अध्यापकों, कर्मचारियों और छात्रों ने मेरा सम्मान किया। प्रशासन से भी यथेष्ट सहयोग मिला। मेरा उद्देश्य था छात्रों को अच्छे संस्कार देना और उनके हितों का संरक्षण करना। अध्यापकों एवं कर्मचारियों को समय पर प्रमोशन दिलाना और शिक्षा का वातावरण समुन्नत करना। मैंने एतदर्थ जो कार्य किए उनमें कुछ निम्न हैं(1) कला सङ्काय के छात्रों को दो वर्ष की उपाधियाँ वितरित नहीं की गई थीं क्योंकि अपरिहार्य कारणों से समावर्तन समारोह (कोन्वोकेशन) नहीं हो पा रहा था। मैंने नए कुलपति नियुक्ति न होने से तत्कालीन रेक्टर प्रो. लेले से चर्चा करके दिनाँक 2 मार्च 2005 में प्रथम कान्वोकेशन कला सङ्काय का करवाया। जिसमें प्रसिद्ध यूनेस्को की सदस्या डॉ. कपिला वात्स्यायन ने दीक्षान्त भाषण किया। छात्रों ने बहुत प्रसन्नता अभिव्यक्त की। यह कान्वोकेशन विश्वविद्यालय का 46 वाँ था तथा कला सङ्काय पाँचवां दूसरा कान्वोकेशन विश्विद्यालय स्तर का हुआ जिसमें महामहिम भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने दीक्षान्त भाषण दिया था। प्रत्येक सङ्काय ने पृथक्-पृथक् भी पूर्ण साज-सज्जा और विधिपूर्वक सम्पन्न किया था। उस समय कुलपति थे प्रो. पंजाब सिंह। कला सङ्काय का यह छठवाँ कान्वोकेशन था। मैंने दोनों कान्वोकेशनों में डीन के रूप में समस्त औपचारिकतायें संपन्न की और छात्रों का उपाधियाँ वितरित की। (2) स्नातक कक्षा (बी.ए.) के छात्र छ: वर्ष पूर्व एक विषय स्वेच्छा से साइन्स का या सामाजिक विज्ञान का ले सकते थे, वैकल्पिक विषय के रूप में। कुछ कारणों से समाज विज्ञान सङ्काय ने यह सुविधा बन्द कर दी थी। उसे मैंने सामाजिक विज्ञान के सङ्काय के तत्कालीन डीन प्रो. भार्गव से मिलकर वह सुविधा पुनः बहाल कराई। सबको आश्चर्य हुआ कि जैन ने कैसे सामाजिक विज्ञान के डीन को राजी कर लिया। (3) स्नातक के छात्रों को वैकल्पिक विषय चयन हेतु एक और सुविधा प्रदान की। अब उनके सामाने विषय चयन हेतु अनेकों विकल्प हो गए। ऐसा करने पर अध्यापन सम्बन्धी समय-सारणी (टाइम टेबल) तथा परीक्षा सम्बन्धी समय सारणी सम्बन्धी परेशानी की शंका उठाई गई। जिसका मैंने समाधान का रास्ता बतला दिया। इससे छात्रों को स्वरुचि के विषयों के चयन का रास्ता खुल गया। (4) कला सङ्काय में कुछ नए डिप्लोमा कोर्स प्रारम्भ कराए। विशेषकर संस्कृत और प्राकृत भाषा में। राजीवगांधी नामक साउथ कैम्पस में भी डिप्लोमा चलवाए। (5) स्नातक और परास्नातक (एम.ए.) के पाठ्यक्रमों का संशोधन कराके उन्हें समयानुकूल बनवाया। (6) कुलपति की इच्छानुसार सेमिस्टर कोर्स परास्नातक में प्रारम्भ कराया। कला सङ्काय के आधे अध्यापक विरोध में थे परन्तु सबको समझाकर तदनुरूप सबकी स्वीकृति करा ली। अन्य सङ्काय कला सङ्काय से पूर्व स्वीकृति कर चुके थे। यहाँ भी युक्तिपूर्वक विरोधियों का समर्थक बनाया जिसको देखकर सभी अचम्भित हुए। (7) अध्यापकों के हितार्थ सभी विभागों के कई वर्षों से रुके हुए साक्षात्कार को कराया, जिससे कई नवीन नियुक्तियाँ तथा प्रमोशन हुए। जिन विभागों (उर्दू, मराठी, म्यूज्योलॉजी, भारत कला भवन, जर्मन आदि) में कोई अध्यक्ष (Head) नहीं था। वहाँ नियुक्तियाँ होने से अध्यक्ष बन गए और मुझे उनके अध्यक्षीय उत्तरायित्व से मुक्ति मिली। संस्कृत से इतर विषयों के साक्षात्कार (चयन) हेतु भी मुझे बैठना होता था और मेरी मार्किंग तद्विषयक विशेषज्ञों के समकक्ष होती थी जिससे कुलपति जी भी प्रशंसा करते थे और निष्पक्ष चयन होता। 135