________________ सिद्ध-सारस्वत एक पद विज्ञापित हुआ। हमने भी आवेदन कर दिया। प्रो0 जैन विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत थे और नियमानुसार रहे चयनसमिति के सदस्य। कलासङ्कायप्रमुख थे भारतीय पुरातत्त्व और संस्कृति के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० लल्लन जी गोपाल। वे चयन समिति के पदेन अध्यक्ष थे। 1993 जुलाई माह में इस पद का साक्षात्कार हुआ। उम्मीदवारों की संख्या थी 59 | चयन प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरान्त नियुक्ति पत्र महाविद्यालय प्रशासन ने निर्गत नहीं किया। नियुक्ति की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर एक उम्मीदवार के व्यर्थ का न्यायायिक वाद कर दिया, स्थानीय न्यायालय में। उसमें फैसला पक्ष में हुआ क्योंकि चयनसमिति ने हमारे नाम की संस्तुति की थी। नियुक्ति के इस वाद का निस्तारण होने तक हमारी नियुक्ति अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में प्रवक्ता पद पर हो गयी। यह केन्द्रीय विश्वविद्यालय है और यहाँ की नियुक्ति का है विशेष महत्त्व। महाविद्यालय की इस चयनप्रक्रिया में प्रो0 जैन की प्राशासनिक दृढ़ता और निर्भीकता सर्वोपरि थी। 1994 के अप्रैल माह में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवक्ता पद पर नियुक्ति मिली थी। तीन वर्ष वहाँ रहने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 1997 के फरवरी महिने में संस्कृत विभाग के प्रवक्ता पद का साक्षात्कार सम्पन्न हुआ। सफलता मिली नियुक्ति प्राप्त करने में। छात्रावस्था के अनन्तर संस्कृत विभाग की एक अध्यापक के रूप में सेवा करने का अवसर मुझको मिला। विभाग में कार्यरत प्रो० सुदर्शन लाल जैन जी को निरन्तर किसी न किसी नये ग्रन्थ की रचना या फिर किसी नवीन शैक्षणिक गतिविधि में संलग्न देख हमको प्रेरणा मिलती रही, अपने समय का सदुपयोग करने की और हम भी किसी न किसी शैक्षणिक परियोजना को विभागीय स्तर पर और व्यक्तिगत रूप से निरन्तर क्रियान्वित करते रहे। विभागीय परिस्थितियाँ अध्यापक के रूप में सङ्घर्षपूर्ण होती गयीं, परन्तु प्रो0 जैन की शुभकामना सदा मेरे साथ रही। उन्होंने शैक्षणिक स्तर पर हमारी निरन्तर सक्रियता को ध्यान में रख हमेशा प्रोत्साहित किया। आपको संस्कृत विभाग का विभागाध्यक्ष दो बार बनाया गया। दोनों बार का आपका कार्यकाल विभाग की उन्नति के लिए उल्लेखनीय व ऐतिहासिक रहा, क्योंकि काशी के मूर्धन्य विद्वानों के निरन्तर व्याख्यान, सेमिनार तथा कार्यशालाओं के आयोजन के प्रति आपने विशेष रुचि दिखाई। इसके अतिरिक्त इन सबके सफल आयोजन में आपने हमेशा मुझको पहले तो छात्र के रूप में और बाद में प्राध्यापक के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया। आप कलासङ्काय के संकाप्रमुख बने। उस समय हमको सङ्काय के स्तर पर अनेक शैक्षणिक उत्तरदायित्व प्रदान कर आपने उपकृत किया। इनमें से प्रमुख था सङ्काय की वार्षिक शोधपत्रिका 'अपूर्वा' का प्रकाशन तथा सम्पादन। स्नेहपूर्ण व्यवहार, चुनौतीपूर्ण विभागीय प्रशासनिक और शैक्षणिक कार्यों के निर्वहण का उत्तरदायित्व आपने मुझको प्रदान किया और हमको भी इससे सीखने का अवसर मिला। आपने किसी भी कार्य को सौपने के उपरान्त कभी नहीं पूछा कि किया की नहीं? क्योंकि आपको पूरा विश्वास था हमारी कार्यशैली पर और कार्य के सम्पादन के प्रति समर्पण पर। आपसे मुझको हमेशा आत्मीयता तथा स्नेह मिला। वर्ष 2003-2004 में विभाग में रीडर के पद का साक्षात्कार होना था। तीन पद थे। मैं भी अभ्यर्थी बना वरिष्ठता के अनुरूप। कुलपति के सामने समस्या रखी गयी। उन्होंने आदेश दिया कि सीधे पद विज्ञापित किए जाएँ। आपने दृढ़ता दिखाई और वैसा ही किया। अवसर उपस्थित हुआ साक्षात्कार का। आन्तरिक विरोध चरम पर था। मैं कुलपति से मिला, अपने शैक्षणिक कार्यों के विषय में। वे खुश हुए। नियुक्ति में उन्होंने आपके विभागाध्यक्ष तथा सङ्कायप्रमुख रहते मुझको प्रमोट भी किया और रीडर पद पर नियुक्ति भी प्रदान की। योग्य का संरक्षण करना आपका अभ्यास तथा सङ्कल्प रहा हैं। उस समय मेरे अतिरिक्त अन्य दो पदों पर प्रो० गोपबन्धु मिश्र तथा प्रो0 मनुलता शर्मा की विभाग में रीडर के पद पर नियुक्ति हुई। विभाग में इन नये अध्यापकों के आगमन से गतिविधियाँ बढ़ीं और आपका कार्यकाल अत्यन्त सफल रहा, संस्कृत भाषा तथा शास्त्रों के संरक्षण तथा संवर्धन की दृष्टि से। एक और दिलचस्प संस्मरण / सङ्कायप्रमुख के रूप में कलासङ्काय की स्नातक कक्षाओं के लिए निर्धारित 600 सीटों पर प्रवेश हेतु आपके द्वारा निर्मित प्रवेश समिति का मैं सदस्य बनाया गया। प्रवेश के लिए निर्धारित आरक्षण के प्रावधानों को कड़ाई के साथ लागू किए जाने पर प्रशासन की कड़ी नजर थी। निर्धारित सीटों पर छात्रों के प्रवेश में इनको लागू किया गया। विषय चयन में इनको लागू करने का कोई प्रावधान नहीं था। कुछ आरक्षण के दायरे में आ रहे नवप्रवेशी छात्रों को अपने मनचाहे विषय नहीं मिले। बस उसमें विषय चयन में आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कहीं नहीं था। आरक्षण के नियमों को सुचारु रूप से लागू करने के लिए विश्वविद्यालय के स्तर पर एक हाई पावर समिति गठित 54