________________ सिद्ध-सारस्वत सम्बन्धों में निश्छल आत्मीयता आदरणीय भाईसाहब श्री सुदर्शनलाल जी जैन से मेरा सम्बन्ध 1973-74 के आसपास हुआ था। मेरे पिताजी स्व. श्री जमनालाल जैन पार्श्वनाथ शोधपीठ में कार्य कर रहे थे। मैं बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में बी.ए. का छात्र था। भाईसाहब का शोधपीठ में आना जाना लगा रहता था। जल्दी ही हमारा सम्बन्ध पारिवारिक हो गया। भाभी जी (श्रीमती मनोरमा जी) मेरी माँ स्व. विजया देवी की आत्मीय हो गयीं। मैं अक्सर उनके आवास पर चला जाता था। इनका बड़ा बेटा सन्दीप और छोटा बेटा संजय मेरे साथ खूब खेलते थे। बेटी मनीषा तो बहुत ही छोटी थी। बाद में मैंने दोनों बच्चों को भूगोल भी पढ़ाया। मेरी माँ को प्लेटलेट डिफीशियेन्सी की बिमारी थी। एक बार उनको बी.एच.यू. अस्पताल में इमरजेन्सी में भर्ती कराना पड़ा। उस समय भाभी जी और भाईसाहब ने काफी मदद की। उन दोनों में निश्छलता और सहृदयता कूटकूट कर भरी थी। सम्बन्धों को मधुर कैसे बनाये रखा जाता है यह आप दोनों से सीखना चाहिए। मेरी उनसे पुनः मुलाकात 2017 में भोपाल लालघाटी के जैनमन्दिर में हुई। वहाँ मेरी पत्नी सरोज के भतीजे की शादी थी। शाम को मन्दिर परिसर में भाभी जी से मुलाकात हो गई फिर उनके साथ उनके घर पर गये और भोजन किया। जब भी मैं बी.एच. यू. जाता हूँ तो आप दोनों की याद ताजा हो जाती है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप दोनों का जीवन स्वस्थ और प्रसन्न रहे। __डॉ. अभय कुमार जैन सा. 14/37 ए, बरईपुर, सारनाथ (वाराणसी) मेरा भी सादर प्रणाम आदरणीय डॉ. सुदर्शन लाल जैन को मैं विद्यार्थी जीवन काल से जानता हूँ। स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी वाराणसी में वे वरिष्ठ कक्षा के छात्र थे। मैं उनसे दो-तीन कक्षाएँ पीछे था। वे बहुत लगनशील, अन्तर्मुखी, कर्त्तव्यनिष्ठ और मेधावी छात्र थे। उन्होंने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में लीन रहकर साहित्याचार्य, जैनदर्शनाचार्य, प्राकृताचार्य और एम.ए. संस्कृत जैसे विषयों में स्नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त की थीं। वाराणसी में ही प्रतिष्ठित पं. दरबारी लाल कोठिया के वे प्रिय शिष्य थे। उस समय यह बात व्याप्त थी कि कोठिया जी उन्हें गोद लेने जा रहे हैं। एम. ए. करने के बाद पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी से स्कालरशिप प्राप्त कर वहीं से 'उत्तराध्ययन सूत्र : एक दार्शनिक परिशीलन' विषय पर आदरणीय डॉ. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य के कुशल निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। जब वे शोधकार्य में लीन रहकर निरन्तर अध्ययन मनन करते थे तो मेरे मन में भी यह बात आती थी कि मैं भी इसी प्रकार पी-एच.डी. करूँ। पी-एच.डी. उपाधि अर्जित कर वे वर्द्धमान कॉलेज, बिजनौर में संस्कृत प्रवक्ता पद पर नियुक्त हो गये। स्याद्वाद महाविद्यालय ने उन्हें भावभीनी विदाई दी। उस समय विद्यालय के अधीक्षक भगत हरिश्चन्द्र जी ने कहा था कि थोड़े समय के लिए ही बिजनौर जा रहे हैं, बाद में यहीं बनारस आ जायेंगे। भगत जी की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। एक वर्ष बाद ही उनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में प्रवक्ता पद पर हो गई। एम. ए. द्वितीय वर्ष में मैं उनका छात्र रहा। यह मेरा सौभाग्य था। यह संयोग ही कहना चाहिए कि जिस बिजनौर को वो छोड़कर आ गए थे, वहाँ पर उन्हीं के पद पर मेरी नियुक्ति अनायास ही हो गई और मेरे जीवन का स्वर्णिम काल वहीं साहित्य साधना करते बीता। यह भी अनुपम संयोग था कि श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री और डॉ. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य जैसे धुरन्धर विद्वानों से अध्ययन करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। डॉ. सुदर्शनलाल जी की धर्मपत्नी डॉ. मनोरमा जैन अपने पति की निरन्तर अनुगामिनी रहीं और उनकी सेवा के कारण सुदर्शनलाल जी अब भी बढ़ी उम्र में भी सुदर्शन बने हुए हैं। डॉ. सुदर्शन लाल जी जिन ऊँचाइयों को छूना चाहते थे, उन सबको छूकर आज भी अनुकूल स्थिति में रहकर 71