________________ सिद्ध-सारस्वत मेरे सबसे अच्छे माता-पिता मैं अपने माता-पिता की प्रथम सन्तान हूँ। मेरा जन्म होने पर दादा जी ने खूब बधाईयाँ कराई और मिठाईयाँ बांटी क्योंकि बहुत समय बाद परिवार में पौत्र हुआ था। मैं बहुत सुन्दर और स्वस्थ भी था जिस कारण सभी रिस्तेदार, पड़ौसी बगैरह मुझे देखने अस्पताल और घर पर आए। विधि का विधान कहें या अशुभ कर्म का उदय कि आठ वर्ष की अवस्था में (19.04.1975) अचानक मुझे पोलियो हो गया। पहले स्कूल में बुखार आया तो मेरी क्लास टीचर ने मुझे घर भिजवा दिया। आचनाक पलंग से उठने पर मैं नीचे गिर पड़ा। पैर सुन्न हो गया। मेरी मम्मी ने पड़ौसी डॉक्टर को बतलाया। उन्होंने तुरन्त अस्पताल ले जाने की सलाह दी। पिता जी तुरन्त अस्पताल ले गए और बच्चों के वार्ड में भर्ती करा दिया। डॉक्टर के निर्देशानुसार मेरे बेड के पास आक्सीजन का सिलेंडर रख दिया गया और रीढ़ की हड्डी से पानी निकालकर जांच को भेज दिया। वह रात्रि मुझे अच्छी तरह याद है प्रतिपल मेरा शरीर अपङ्ग होता जा रहा था परन्तु कुछ पुण्यकर्म का फलोदय हुआ जिससे सांस बन्द नहीं हो पाई। पिता जी का हाल बेहाल था। माँ की भी यही स्थिति थी। भगवान् का नाम सब लोग जप रहे थे। शरीर का तीन चौथाई भाग पोलियो की चपेट में आ चुका था। पिता जी लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई आदि कई जगह लेकर गए, किसी को इस भयानक बीमारी का अंदाज नहीं था। मुंबई में एक छोटा सा आपरेशन कराया। पिता जी के साथ कोई नहीं था और न कोई जान पहचान वाला था। आपरेशन करने वाले डाक्टर ने बड़ी सहायता की। आपरेशन के बाद रात्रि में वार्ड में पिताजी को नहीं रहने दिया क्योंकि पुरुषवर्ग की मनाही थी। वाचमेन की मदद से पिताजी बाहर कमरे में सो गए। परन्तु आँखों में नींद नहीं थी। एक श्वेताम्बर जैन साधु सङ्ग में शरण लेकर खाना रहना किया। कुछ समय बाद मुझे लेकर वाराणसी आए, इधर सेन्ट्रल स्कूल बी.एच.यू. केम्पस के प्रिंसपल ने वार्षिक परीक्षा न दे पाने पर भी पिछला रिकार्ड (छ:माही तक) देखकर अग्रिम कक्षा में प्रवेश दे दिया। मैं कक्षा में हमेशा प्रथम द्वितीय रहता था। एक बार जब मैं 10 वीं की वार्षिक परीक्षा दे रहा था तो पिता जी ने हाथ की अंगुलियों की कमजोरी की वजह से दिल्ली पत्र लिखकर मुझे परीक्षा में आधा घंटा अतिरिक्त दने की अनुमति दिला दी परन्तु मैंने उस समय का फायदा नहीं लिया। बारहवीं पास करने के बाद मेरा बी.एच.यू. में बी.टेक (कम्प्यूटर साइंस) में एडमीशन हो गया। पिता जी ने एक ट्राई स्कूटर खरीदकर दिया। मैं उसे चलाकर कॉलेज जाने लगा। बी.टेक. (बी.ई.) करने के बाद मैं पूना में (सी.डेक कम्पनी) में सर्विस करने लगा। फरवरी 1989 में मैं पूना से वाराणसी पहुँचा, अपनी बी.टेक की डिग्री लेने। Convocation के समय मुझे स्वर्ण पदक की प्राप्ति होनी थी, परन्तु मेरे पिताजी जिनकी प्रेरणा व सहयोग से मैं इस मुकाम तक पहुँचा था, वो शामिल न हो सके। विधि का विधान ऐसा कि पिताजी कटनी से जिस ट्रेन में आ रहे थे वो लेट हो गई। पिताजी ने मालगाड़ी, बस आदि के धक्के खाते हुए किसी हाल में पहुँचे पर समय से चूक गये। ये उनका प्रगाढ़ प्रेम था जो वो मेरी तरक्की पर कितना गर्वान्वित महसूस कर रहे थे। सन् 2015 को जब मेरी बेटी अर्चिता 12 वीं कक्षा पास कर Convocation से निकली तो मुझे पिताजी की वो भावना महसूस हुई। जब मैं अमेरिका आया तो कार चलाने लगा और भी काम अपने आप करने लगा। इधर पिताजी मेरी शादी की चिन्ता में कन्या खोज रहे थे। अन्त में मेरी अर्चना से शादी हो गई जो मेरी सही अर्धांगिनी होकर सहयोग कर रही है। आज मैं दो बच्चियों का पिता हूँ तथा सिस्को कम्पनी में डायरेक्टर की पोस्ट पर हूँ। ये सब मेरे पिता जी और माता जी की देन है जो आज मैं इस मुकाम पर हूँ। मैं चाहता हूँ कि ऐसे माता-पिता मुझे पुनः अगले जन्म में मिले। गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागों पाँव। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।। माता-पिता हमें जन्म देते हैं और वे हमारे पहले गुरु होते हैं। बचपन में प्रथम दिन से वे हमें प्यार देते हैं, हमारी जरूरतों को पहले समझ कर पूर्ति करते हैं। हम उनको प्रतिपल देखते हैं और छोटी-छोटी व बड़ी-बड़ी बातों को समझते हैं व अपनाते हैं। हर पल उनके साथ रहते हुए हम उनकी छवि को अपने अन्तरङ्ग में बसाते हैं। इतनी शिक्षा, मार्गदर्शन, वह भी बिना अपेक्षा भाव के, हमारे जीवन को वो रूप देते हैं जो हमें इस संसार के सुख भरे व दुःख भरे पलों 115