________________ सिद्ध-सारस्वत अपनी मङ्गलकामनाएँ प्रेषित करना चाहता हूँ। वाराणसी अध्ययनकाल की यादों का सफर तय करने के लिए भी प्रथमतः शरीर तदोपरान्त मानस भी स्वस्थ हो। यादें तो एक-दो नहीं अनेक हैं। फिर भी तारतम्य से सजाना भी आसान नहीं है। दरअसल हमारी कक्षा के ये निर्विवाद सहिष्णु विद्यार्थी थे। पूज्य वर्णी जी महाराज ने स्याद्वाद महाविद्यालय के प्रधानाचार्य आदरणीय पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री को विद्यालय का प्राण' कहा था। उनसे लेकर अन्य समस्त गुरुजनों द्वारा इनकी सराहना की जाती थी। वाराणसी के श्रेष्ठतम विद्वान् पंडित हमारे महाविद्यालय में अध्यापन करते थे। पं. भोलानाथ पाण्डेय, पंडित दिवाकर जोशी, पंडित अमृतलाल जैन शास्त्री, पं. बालचन्द्र जैन शास्त्री आदि। एक नैयायिक गुरु जी पंडित सूर्यनारायण उपाध्याय हम सबको प्रिय थे। उन्होंने स्नेह से सुदर्शन लाल जी का अपर नाम भिक्खू रख रखा था। अगर किसी दिन उन्हें सुदर्शनलाल जी नहीं दिखते थे, तो पूछते - प्रेम आज भिक्खू नहीं दिखा...। हम लोग भी इनकी सहजता और सहिष्णुता से हैरान हो जाते थे। हम लोगों की कड़वी बातें भी इनकी मुस्कान को प्रभावित नहीं कर पातीं थीं। इनका एक विशेष गुण था कि ये गुरुजनों, विद्वानों और शिक्षकों के कुछ समय में ही स्नेह भाजन बनने में सफल रहते थे जो आज भी विद्यमान है। सहपाठियों में मैं इनका प्रशंसक था। आज भी हूँ। मैं पहले लिख चुका हूँ कि सहपाठी के साथ एक लम्बी अवधि का समय बीता है। अत: अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जो उनके विवेक एवं सहिष्णुता से सम्बन्धित हैं। उन सबके विवरण खंगालने के लिए पचास वर्ष पीछे का सफर तय किये बिना संभव नहीं है। एक ओर मेरी स्वास्थ्य सम्बन्धी असमर्थता और दूसरी ओर - न, माँझी, न रहवर, न हक में हवाएँ हैं, कश्ती भी जर्जर - यै कैसा सफ़र है ? अलग ही मजा है फकीरी का अपना, न पाने की चिन्ता, न खोने का डर है।। डॉ. जैन मेरे सहपाठी मात्र न होकर मेरे मित्र भी हैं। यानी "पापान्निवारयति योजयते हिताय..." वाले सन्मित्र। सच्चे मित्र के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु का कथन है, 'सच्चे मित्र हीरे की तरह कीमती और दुर्लभ होते हैं, झूठे दोस्त पतझड़ की पत्तियों की तरह हर जगह मिल जाते हैं। आप जानते हैं ऐसे सच्चे मित्र जीवन के हर मोड़ पर याद आते हैं। डॉ. सुदर्शन लाल जी जब पी-एच.डी. कर रहे थे। तब उन्हें श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी की अच्छी स्कालरशिप मिल रही थी। शोध-संस्थान में ही आपको एक क्वाटर एलॉट था। वहाँ आपने सपत्नीक रहते हुए बड़ी निष्ठा एवं लगन से निर्धारित अवधि में शोध सम्पन्न किया और उपाधि प्राप्त की। इनकी धर्मपरायणा विदुषी पत्नी का इनके अध्ययन में निर्वाध योगदान का मैं साक्षी हूँ। कुछ समय बाद ही ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में प्रवक्ता बने। इसके बाद तो इन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अनेक कीर्तिमान स्थापित किये। सम्मान एवं पुरस्कार भी अनेक जैन संस्थान तथा विश्वविद्यालयों से मिलते रहे। एक लब्धप्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मान भारत गणराज्य के राष्ट्रपति के करकमलों से इन्हें प्राप्त हो चुका है। अब आप ही बताइये ऐसे सुख्यात मित्र को एक और अभिनन्दन ग्रन्थ तथा सम्मान दिये जाने पर किसे आह्लाद नहीं होगा ? मैं अत्यधिक प्रसन्न एवं आनन्दित हूँ। अतएव में डॉ. साहब एवं इनकी विदुषी पत्नी डॉ. मनोरमा जैन के निरोगी दीर्घायुष्य की मङ्गलकामनाएँ और सद्भावनाएँ प्रेषित करता हूँ। सहपाठियों तथा मित्रों की अनेकानेक अविस्मरणीय यादें हैं। उनमें कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं फिर तो आप आत्मीय सुहृद हो। हिन्दी साहित्य के कवि डॉ. हरिवंशराय बच्चन की एक लम्बी कविता है, उसकी कुछ पक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ - मैं यादों का किस्सा खोलूँ तो, कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं। मैं गुजरे पल को सोचूँ तो, कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं। कुछ बातें थी फूलों जैसी, कुछ लहजे खुशबू जैसे थे। मैं शहरे चमन मैं टहलूँ तो, कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं....।। आप जैसे सुहृत (आत्मीय) बहुत याद आते हैं। कोटिशः शुभकामनाएँ, यादें स्वीकारेंगे। आभारी रहूँगा। डॉ. प्रेमचन्द्र जैन नजीबाबाद