________________ सिद्ध-सारस्वत पत्नी का हो भाग्य प्रबल तब ही पुरुषार्थ है फलता। नहीं नहीं तो पुरुषपति, केवल हाथ ही मलता।। जैन दर्शनाचार्य हुई और डाक्ट्रेट भी कीना। विशिष्ट योग्यता पायी इनने, और स्वर्णपदक है लीना।। पण्डित जी भी नहीं कहीं कम, राष्ट्रपति कीन्हा सम्मान। रहे सुदर्शन सदा सुदर्शन, नहीं तनिक कोई अभिमान / / सूर्यचन्द्रमा के चिराग भी कैसे धुंधले रहते। सभी पुत्र-पुत्रियाँ भी अब नक्षत्रों से दमकते।। पुत्रवधुयें और दामाद सभी प्रिय उच्च सुशिक्षित लाये। सभी नभ में नक्षत्रों जैसे, कीर्तिध्वजा लहराये।। यही कामना है हम सब की अमर रहे जय गाथा। नहीं अस्त हो सूर्य किसी का धन्य हे भाग्य विधाता।। श्री महेन्द्र जैन एवं श्रीमती शशि जैन पूर्व मैंनेजर, स्टील प्लांट, अनप्रेक्षा सदन, भोपाल सिद्ध-सारस्वत प्रो. सुदर्शनलाल जी : यथानाम तथा गुण जैनदर्शन एवं बौद्धदर्शन के स्थापित वरेण्यमनीषी प्रो. सुदर्शनलाल जी से मेरे व्यक्तिगत सम्बन्ध विगत 50 वर्षों से हैं, जब आप एक बार मेरे ग्राम-मड़ावरा (ललितपुर) उत्तरप्रदेश पधारे थे। श्री दि. जैन नया मन्दिर जी में आपका एक प्रवचन आयोजित था। प्रवचन के पश्चात् एक औपचारिक मुलाकात हुई और तभी से जुड़े रहने का कोई न कोई माध्यम मिलता रहा। वस्तुतः यह परिचय तब से और गाढ़ा होता गया जब अ.भा. विद्वत्सङ्गोष्ठियों में अथवा कभी कभार वाराणसी जाने पर मिले। विचारों का आदान-प्रदान होता रहा और हम लोग बुन्देलखण्ड की माटी की संस्कृति से भीगे होने के कारण सम्बन्धों का गाढ़ापन आत्मीय होता गया। विद्वत्ता में विनम्रता की महक, बचपन के संस्कार, स्वावलम्बन और गरीबी की गरीयसा से ज्यादा सुरभित होती है। प्रो. सा. और मेरे बचपन की कथा-कहानी लगभग एक सी रही है। आपको मातृ-वियोग बचपन में, मुझे पितृवियोग बचपन में। आप गरीबी की गरिमा से तपे हुए बाहर निःशुल्क शिक्षा के सुयोग से उत्तरोत्तर बढ़ते गये और मुझे भी 5 वर्ष (1953-58) श्री दि. जैन देशभूषण गुरुकुल अयोध्या (उ.प्र.) में नि:शुल्क शिक्षा का सुअवसर मिला। जहाँ रहकर आत्मनिर्भरता का पाठ भी पढ़ा। दोनों भौतिक अभावों से जीवन लक्ष्य के भावों को और मजबूती से प्राप्त कर, प्रशस्त भाग्य और पुरुषार्थ की जुगलबन्दी से जीवन निर्माण की दिशा में आगे बढ़े। शिक्षा के क्षेत्र में जहाँ प्रो. साहब जैनदर्शन/बौद्धदर्शन, साहित्य और पाली-प्राकृत की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अग्रगण्य रहे वहीं मैं विज्ञान भौतिकी में स्नातकोत्तर शिक्षा सागर विश्वविद्यालय से प्राप्त कर म.प्र. शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुआ। मेरे मित्र प्रो. सुदर्शनलाल जी जैसे वरेण्य विद्वानों की सन्निधि और शुभांकाक्षा से इनसे बहुत कुछ सीखा और जैनाचार्यों / जैन सन्तों के आशीर्वाद का प्रशस्त पुण्य प्राप्त किया। मुझे प्रो. सुदर्शन लाल जी के हँसमुख और उदात्त व्यक्तित्व ने बहुत प्रभावित किया। आपको अपनी विद्वत्ता का कहीं भी अहंकार नहीं है। देश के सर्वोच्च काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर रहकर अन्त में कला सङ्काय के डीन जैसे गरिमामय पद से सेवा निवृत्त हुए। सामाजिक क्षेत्र में भी कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रहकर, न केवल शिक्षा जगत में अपितु प्रशासनिक सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में अनन्य उपलब्धियाँ रहीं। अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत महामहिम राष्ट्रपति पुरस्कार (2012) आपकी विलक्षण प्रतिभा का शिलालेख है। ज्ञान-यज्ञ की समाधि में आपक शोधप्रबन्ध 'उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन' विशेष चर्चित रहा है। विद्वानों का अभिनन्दन मात्र औपचारिक नहीं है। मेरा विश्वास है कि यह उनकी जीवन भर की शैक्षणिक