________________ सिद्ध-सारस्वत मेरे विद्यागुरु और अभिभावक भारत के ख्यातिलब्ध जैन विद्वानों में प्रो. सुदर्शनलाल जैन जी का नाम अग्रगण्य है। वे संस्कृत, प्राकृत, पाली तथा जैनविद्या के विशेषज्ञ हैं। उनसे मुझे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे मुझे निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हेतु प्रोत्साहित करते रहते थे। मेरे विद्यागुरु के साथ उन्होंने अभिभावक के रूप में संरक्षण एवं निर्देशन दिया। अपने सहाध्यायी डॉ. धर्मचन्द्र जैन के साथ उनके घर पर जाना होता रहता था। जहाँ उनके परिवार के सदस्यों का स्नेहासिक्त वातावरण प्राप्त होता था। प्रो. जैन की सहधर्मिणी डॉ. मनोरमा जैन का स्वभाव भी हंसमुख एवं मिलनसारिता का है। इनके पुत्र देश-विदेश में उच्च प्रतिष्ठित पदों पर सेवा कार्य में संलग्न हैं। वाराणसी की प्रतिष्ठित संस्थाओं जैसे स्याद्वाद महाविद्यालय, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान की कार्यकारिणी समितियों में विभिन्न पदों पर प्रतिष्ठित होकर उनके विकास में उल्लेखनीय भूमिका का डॉ. जैन ने निर्वहन किया। जब में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैन-बौद्ध दर्शन विभाग में नियुक्त हुआ तो बराबर इस विभाग के उन्नयन में इनका सहयोग एवं मार्गदर्शन मिलता रहा। जैन संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन, प्रचार-प्रसार में उनका एवं उनके परिवार के सदस्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके द्वारा लिखित कृतियाँ जैसे उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन, देव-शास्त्र-गुरु, प्राकृतदीपिका, संस्कृतप्रवेशिका बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके कृतियों पर इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनका महनीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व हम सभी के लिए आदर्श है। अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्पादक मण्डल के माध्यम से उनकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता का अर्घ्य समर्पित कर हम गौरव की अनुभूति कर रहे हैं। हम उनके यशस्वी एवं दीर्घजीवन की हार्दिक मङ्गलकामना करते हैं। प्रो. अशोक कुमार जैन विभागाध्यक्ष, जैन बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी सोमनस्स-सम्बन्धो (सौमनस्य - सम्बन्ध) इदं खो पन महं सोमनस्स-विसयो ति यँ आचरिय सुदस्सन-लाल-जेन महोदयेन सह महं सम्बन्धं कदा कथं अहोसि। तेन सह मम परिचयो एकूनासी ति अधिकं एकूनवीसति ईसा सम्बद्धरतो अत्थि। ततो पट्ठाय निरन्तरं निबद्धगतिना नाना विसय-पसंगे तेन सद्धिं अञमजं संल्लापो होति / तस्मा किञ्चि सद्देहि तेन सह सम्बन्धं व्याकरोन्तो अहं आनन्दं, पामोदे पामोजं च अनुभवामि। सो अतिचिय उदारो पण्डितो ति। सो सिस्सानं विज्जत्थीनं वा एको उपकारको सहायको च आचरियो ति। सो वोहार-कुसलो सुविदितो पुरिसो पि अत्थि। सद्धा-हिरि-ओतप्प-पटिवलेहि सम्पयुत्तो पुग्गलो अत्थि / सो सङ्खत-पालि पाइय भासानं विपुल-माणंपि रक्खति / तस्मा तेन अनेक पोत्थकानि लिखितानि होन्ति। सो नानप्पकारानं गारवोपाधिनेहि सम्मानेहि वा सम्मानितो अहोसि। अहं तं अभिनन्दनं करोन्तो तस्स सबलं जीवितिन्द्रियं दीघमायुं च कामयामि। अहं एतमत्थं भगवन्तं याचयामि। प्रो. हरिशंकर शुक्ल पूर्व अध्यक्ष, पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, बी.एच.यू., वाराणसी हमारे मार्गदर्शक प्रो. सुदर्शनलाल जी से मेरा पहला साक्षात्कार 1973 में हुआ। जब मैं कटनी के शांति निकेतन जैन विद्यालय में पढ़ता था। उस समय डॉ. साहब का उदाहरण दिया जाता था कि यहाँ के छात्र का. हि. वि. वि. में प्रोफेसर पद पर चयनित हुए हैं। इनके भांजे श्री नन्दनलाल जी के साथ पहली बार वाराणसी गया। श्री नन्दन लाल जी पहले ही दिन 68