________________ सिद्ध-सारस्वत ज्ञान-सूर्य-सम आलोकित जैन जगत् के ख्याति प्राप्त मूर्धन्य विद्वान् प्रो. सुदर्शनलाल जैन के अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन, वीतराग वाणी ट्रस्ट शैल सागर टीकमगढ़ से देश के ख्याति प्राप्त प्रतिष्ठाचार्य पं. श्रीविमल कुमार जी सौंरया, प्रधान सम्पादक वीतराग वाणी के मार्गदर्शन एवं सम्पादकत्व में होने जा रहा है। यह समाचार जब मुझे प्राप्त हुआ तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति हुई। मेरे अन्तस् में एक हिलोर उठी कि मुझे भी कुछ पंक्तियों का योगदान देना चाहिए।। वैसे तो पण्डित जी से मेरा परिचय अत्यन्त लघु समय का है, जब से वे जैन-नगर में निवास कर रहे हैं तभी से है। इस समयावधि में मैंने जितना समझा उसका निष्कर्ष यही है कि इतनी विशिष्ट सम्मानीय उपाधियों के धारक शिक्षा के क्षेत्र में अनेकानेक उच्च प्रतिष्ठित पदों पर सेवायें अर्पित करने एवं लगभग अर्धशतक शोधार्थियों को पीएच.डी. करवाने वाले ये महान् विभूति देश की बौद्धिक धरोहर हैं तथा सदैव रहेगी, अत्यन्त सहज, सरल, मृदुभाषी, निराभिमानी एवं उच्चकोटि के संस्कृत भाषा के साथ-साथ आगम शास्त्रों के गहन-ज्ञाता तो हैं ही एक उत्कृष्ट प्रवचन कर्ता भी हैं। अध्ययनशील तथा सहयोग करने में तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशेषता यह है कि वे आगम प्रणीत विषय बिन्दुओं पर वैज्ञानिक दृष्टि से समझने की जिज्ञासा रखते हैं तथा तर्कपूर्ण विवेचना के माध्यम से वे सम्पूर्ण समाधान प्राप्त कर ही सन्तुष्ट होते हैं। उनका यथार्थ कथन है कि वर्तमान में विज्ञान सापेक्ष सन्तुष्टि कारक व्याख्या विवेचना ही वर्तमान पीढ़ी के जिज्ञासुओं को सन्तुष्ट कर सकती है जो उनकी आगम पर दृढ आस्था बनाए रहने के लिये आवश्यक है अन्यथा वे आगम प्रणीत विवेचनाओं पर अविश्वास करते रहेगें? यद्यपि वे स्वयं विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में डिग्रीधारी नहीं हैं तो भी वे ज्ञानवान् हैं तर्कशील बुद्धिजीवी हैं। मेरे विचार से देश के सभी विद्वानों को इस सन्दर्भ में उनके दृष्टिकोण से सहमत होना चाहिये। उनको प्राप्त उपाधियों, पुस्कारों, शैक्षिक योग्यताओं एवं सेवाओं आदि के सन्दर्भ में अनेकानेक विद्वान् लिखेगें अत: मैं पुनरावृत्ति नहीं करना चाहूँगा। पण्डित जी का अवतरण ग्राम मंजला, जिला सागर, म.प्र. में दिनांक 1 अप्रैल 1944 को प्रात: 07:30 बजे हुआ था। मास्टर साहब परमादरणीय श्री सिद्धेलाल जी बड़कुल एवं पूज्य मातुश्री सरस्वती देवी के घर सरस्वती माँ के उदर से सरस्वती पुत्र का जन्म ही तो होगा, सो हुआ। पिताश्री सिद्ध के लाल, सिद्धेलाल के स्वयं सिद्ध ज्ञानदिवाकर प्रकट हुए थे। __इनके जन्म समय के ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव ऐसा था कि मातुश्री अपने नन्हें से सरस्वती-चिराग को 10 माह की अवस्था में ही श्रीसिद्धेलाल जी की गोद में सौंप कर स्वर्गारोहण कर गईं। चिराग रोशन रहेगा यह अटल विश्वास लेकर गई तथा स्वर्ग से ही आशीषों की प्रखर रश्मियों के पुञ्ज सम्प्रेषित करती रहीं। इनके ही आशीर्वाद एवं पिता श्री सिद्धेलाल के वरदहस्त से विषम परिस्थियों में भी इनका कालजयी रथ प्रगति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता रहा। जिस शिशु का जन्म प्रातः कालीन वेला में होता है वह बालक गतिमान सूर्य की तरह यशः कीर्ति वाला होता है तथा उसका अन्तस् सदैव ज्ञानसूर्य से आलोकित रहता है। यदि बाल्यावस्था में सूर्य बादलों की धुंध से आच्छादित भी हो तो भी कुछ समय पश्चात् धुंध छठ जायेगी, सूर्य का प्रकाश पूर्ण तेज के साथ प्रकट हो जायेगा। यही हमारे विद्वान् श्री के जीवन में घटित हुआ। ऐसे शिशु का बाल्यपन यदि कुछ विपरीत प्रतिकूल परिस्थितिओं से ग्रसित भी रहा हो तो भी समय आने पर भाग्य का सितारा चमकेगा, ऐसे व्यक्तित्व अपने पुरुषार्थ से ही स्वयं का निर्माण कर कीर्तिमानों का सोपान चढ़ते जाते हैं। (Self made Man) समय आने पर - सङ्घर्षों की इस दुनियाँ में, मिल गई एक सहेली। सती मनोरमा सम मनोरमा, अब तक थी जो अकेली।। सौम्य साम्य मृदुभाषी, प्रबल भाग्यशाली वह विदुषी। संग चली वन चेली, अरु पुरुषार्थ भी तब ही फलता, जब संग हो ऐसी सहेली। 61