________________ सिद्ध-सारस्वत विद्वत्परिषद् के गौरव अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के मन्त्री तथा वर्तमान में वरिष्ठ विद्वान् सदस्य प्रो. सुदर्शनलाल जी जैन से मेरा सर्वप्रथम परिचय सन् 1978 में वाराणसी में हुआ जब मैंने श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में प्रवेश लिया और दो-चार दिनों के बाद ही अग्रज श्री अशोककुमार जैन एवं उनके मित्र श्री धरमचन्द जैन (जो प्रो. साहब के रिश्तेदार भी हैं) के साथ आपके काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर स्थित निवास पर मिला और आशीर्वाद प्राप्त किया। मुझे आज भी याद है कि उस समय आपकी धर्मपत्नी श्रीमती मनोरमा जैन (हम सबकी भाभी जी) ने पानी में आधा चम्मच ग्लुकोज (ग्लुकोन-डी) मिलाकर स्वागत किया था। यह उनके मधुर व्यवहार का प्रतीक था जो प्रायः आगन्तुकों को देखने में मिलता था। सहजता से हँस-हँसकर बात करना, स्नेह व्यक्त करना, कुशलक्षेम पूछना आप में स्वाभाविक गुण के रूप में विद्यमान है। आप दम्पती के साथ परिचय निरन्तर बना हुआ है। अध्ययन के उपरान्त अनेक संगोष्ठियों में आपसे मिलने, आपके विचारों को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। एक समय ऐसा आया जब जैन समाज में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप को लेकर चर्चा गर्म थी तब विद्वत्परिषद् की ओर से आपकी कृति 'देव-शास्त्र-गुरु' प्रकाशित हुई। यह कृति निर्दोष देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप को आगम के अनुरूप बताने वाली सिद्ध हुई और विद्वत्समाज के द्वारा इस कृति का भरपूर समादर किया गया। संस्कृत, प्राकृत के अध्ययन-अध्यापन के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में पदस्थ रहते हुए आपने शोधकार्यों को बढ़ावा दिया जिससे अनेक रहस्यों का उद्घाटन हुआ। आपके मन में हमेशा चाह रहती है कि विद्वान् शोध कार्य में संलग्न हों। आपके द्वारा लिखित एवं सम्पादित कृतियाँ विद्वत्परिषद् की विचारधारा के अनुरूप हैं, अभिनन्दनीय हैं। हमारे लिए यह गौरव का विषय है कि विद्वत्परिषद् के कुछ विद्वान् महामहिम राष्ट्रपति के करकमलों से पुरस्कृत हुए हैं। आप उनमें से एक हैं। अतः हम सभी के लिए सम्माननीय हैं। आपके व्यक्तित्व में कठोरता एवं कोमलता का सम्मिश्रण है। जब आपके बाह्य स्वरूप को देखते हैं तो कठोरता का एहसास होता है किन्तु जब आपके साथ घुलमिल जाते हैं तो आपके हृदय की कोमलता का स्वरूप सामने आ जाता है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आपका आन्तरिक कोमल पक्ष बाह्य में प्रकट हो। वीतराग वाणी ट्रस्ट के द्वारा प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सोरया (हमारे काका जी) के प्रधान सम्पादकत्व में आपको अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करते हुए अभिनन्दन किया जा रहा है। मैं समझता हूँ कि यह आपका ही नहीं अपितु सम्पूर्ण अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् का अभिनन्दन है। क्योंकि आप विद्वत्परिषद् के गौरव हैं। मेरे लिए वर्तमान महामन्त्री के नाते इससे अधिक और प्रसन्नता की बात क्या हो सकती है। आप शतायु हों और आपका पुनः पुनः अभिनन्दन हो ऐसी कामना है। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' महामन्त्री, अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद्, प्रधान सम्पादक, पार्श्व ज्योति, बुरहानपुर (म.प्र.) आचार्य सुदर्शन लाल जैन मैंने सन् 1971 ई0 में एम0ए0 संस्कृत में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत एवं पालि विभाग में प्रवेश लिया था। उस समय गुरुवर जैन जी विभाग में प्रवक्ता पद पर प्रतिष्ठित थे। मैंने एम0ए0 द्वितीय वर्ष में 'जैनिज्म एण्ड बुद्धिज्म' वर्ग चुना था। उस समय गुरुवर जैन जी मुझे 'उत्तराध्ययनसूत्र', 'द्रव्यसङ्ग्रह' एवं 'पञ्चास्तिकायसार' जैसे ग्रन्थों को पढ़ाया करते थे। गुरुवर अध्यापन हेतु कक्षा में नियमितरूप से आते थे। सरल प्रकृति के डॉ० जैन विषय की स्पष्ट व्याख्या करते थे। संस्कृत में एम्0ए0 करने के पश्चात् भी मेरा आदरणीय गुरुवर से सम्बन्ध बना रहा, क्योंकि मैंने उसी विभाग से पुनः पालि विषय से पी-एच.डी. की और सन् 1977 से प्रवक्ता के रूप में वहीं अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् 1982 ई0 में संस्कृत एवं पालि विभाग दो विभागों - संस्कृत विभाग तथा पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग 50