________________ सिद्ध-सारस्वत को मिली। पुष्प कहीं भी खिलता है पर अपनी सुरभि से दिग्दिगंतर को सुरभित करना उसका प्राकृतिक अधिकार होता है। प्रो0 जैन सर ने जब से शिक्षा ग्रहण कर शैक्षणिक जगत् में प्रवेश किया तब से ही अपने अन्त: में निगूहित सहज स्नेहपूर्ण ज्ञानरूप गुण के मकरंद को प्रसारित करने लगे। कभी मित्रों, सहकर्मियों, शिष्यों व परिवारजनों के उत्थान में तो कभी अनेक विशिष्ट ग्रन्थों के प्रणयन के माध्यम से व वैदुष्यपूर्ण व्याख्यानों के माध्यम से संस्कृत ज्ञान परम्परा विशेषत: जैन परम्परा का अतिशय वर्धन किया। वस्तुत: कर्म से ही मनुष्य जीवन्त होता है तथा यही उसके अस्तित्व का प्रमाण भी है 'मनुष्याः कर्म लक्षणाः' कथन द्वारा व्यास ने इसी तथ्य की ओर संकेत किया है। जो कर्म को अपना मानक नहीं समझते उन्हें न तो अपनी सत्ता का बोध होता है और न व्यक्ति के रूप में वे व्यक्त ही होते हैं। जिनमे प्रबल जिजीविषा है वे समाज के ज्योतिष्मान नक्षत्र बनकर अपनी अभिव्यक्ति करते हैं अथवा अपने को इस धरती का गन्ध-पादप सिद्ध करते हैं। उनके सम्बन्ध में कुछ कहना या अभिनन्दन करना, न केवल उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करना है, अपितु अपने मनुष्यत्व या शिष्यत्व का परिचय भी देना है। एक ऐसे ही विशिष्ट व्यक्ति की सारस्वतयात्रा का कार्य संभार अभिनन्दन के व्याज से अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है। जो अपने आप में विशिष्ट जीवन जीने का एक प्रतिदर्श है। प्रो0 जैन सर मात्र विषय-विशेष के विद्वान ही नहीं अपितु जैन शास्त्र, दर्शन व परम्परा को अहर्निश वृद्धिंगत करने में आपका अभूतपूर्व अद्भुत योग अनुयोग व प्रयोग ही आपके वैश्विक सम्मान की पृष्ठभूमि है। आप शासन से अधिक अनुशासन प्रिय हैं तथा अनुशासन का विस्तार आत्मानुशासन तक किया है। आप की विनम्रता, अपूर्व सौम्यभाव व कर्मनिष्ठा इसी का अङ्गभूत है। ऐसे निष्ठावान सत्पुरुष विद्वान् और गुरु के चिरायुष्य व चिरकीर्ति के चिरन्तन संवर्धन की हार्द शुभकामना तथा मङ्गलकामना और शत शत प्रणाम। अन्त में - अधिसदसि भवन्तो भाविनो भव्य राजा विततविहितयज्ञा ब्रह्मपारायणज्ञा। सुचिररुचिरभाषा लोकशिक्षार्थमात्रमुपशतशरदानामायुषा वर्तयन्तु।। डॉ. विवेक पाण्डेय एसोसियेट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, पी0 जी0 कॉलेज, हंडिया, इलाहाबाद कीर्तिर्यस्य स जीवति आयुष्यं रुचिरं चिरं बहुविधं, धान्यं धनं पेशलं, वंशो वश्यसमाकुल-कुलमहो ते निष्कलङ्कं महत्। आचारश्च विचार-चारु सुभगो विधानवद्या तथा, काङ्क्षा नो अवशिष्यते मुहुरहो जीयात्स भूयोऽवनौ।। रजत जयन्ती के परम पावन पचहत्तरवीं वर्षगांठ के अवसर पर सिद्ध-सारस्वत राष्ट्रपति सम्मानालङ्कृत प्रो. सुदर्शन लाल जैन, प्राकृत-जैनदर्शन एवं संस्कृत विद्या के परिनिष्ठित विद्वान् स्वयं में अभिनन्दनीय हैं। अपने छात्र जीवन से मैं गोस्वमी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस का पाठ करता था। उसमें लिखा है कि 'उपजहिं अनत-अनत छवि लहहीं' अर्थात् कमल की जड़ अन्यत्र होती है और उसका पुष्प और पत्र अपनी जड़ से दूरी पर अपनी शोभा को विखेरता है, उसी प्रकार प्रो. जैन का प्रादुर्भाव काशी से सुदूर ग्राम मंजला, जिला सागर में हुआ और उन्होंने अपनी छवि एवं ज्ञान का प्रसारण काशी में आकर सन्तवत् किया। सन्त साधनविहीन होकर अन्यत्र उत्पन्न होता है किन्तु उसके सन्तत्व का प्रसार अन्यत्र जाकर प्रस्फुटित होता है। मेरे मन में विचार आया कि जब वाल्मीकि ने भगवान् श्रीराम के सम्बन्ध में रामायण लिख दिया तो अन्य महाकवियों को रामचरित का गुणगान करने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर महाकवि जयदेव विरचित प्रसन्नराघव में मिला कि - स्वसूक्तीनां पात्रं रघुकुलतिलकमेकं कलयतां 46