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मैने ज्योंका त्यों उसे चंद्रपुरका स्वामी वनादिया । यद्यपि उसने मेरी अधीनता स्वीकार तो करली पर उसने अपने कुटिल भावोंको नहीं छोड़ा इसलिये एक दिन उस दुष्टने नानाप्रकारके आभूषण उत्तम वस्त्र एवं धन धान्य सुवर्ण आदिक पदार्थ मेरी भेंटकेलिये भेजे, और इनपदाथों के साथ एक घोड़ा भी भेजा । यद्यपि वह घोड़ा ऊपरसे मनोहर था पर आशिक्षित एवं आतिशय दुष्ट था। जिससमय उस की भेजी हुई भेंट मैंने देखी तो मैं उसके कुटिलभावको तो समझ नहीं सका किंतु विना विचारे ही मैं उसके इस प्रकारके वर्तावको उत्तम वर्ताव समझकर प्रसन्न होगया । भेटमें भेजेहुवे उन समस्तपदार्थोंमें मुझै घोड़ा बहुत ही उत्तम मालूम पडा, इसलिये विना विचारे ही उस घोड़ेकी परीक्षा करने के लिये मैं उसपर सवार होकर वनकी और चलपड़ा। जिससमय मैं वनमें आया तो मैंने तो आनंदमें आकर उसके कोड़ा मारा किंतु वह घोड़ा कोड़के इशारेको न समझकर एकदम ऊपर उछला
और मुझे इसभयंकर गड्ढ़े में पटककर न जाने कहां चला गया । इसी कारण मैं इसगड्ढ़ेमें पड़ा हुआ इसप्रकारके कष्टों को भोगरहा हूं। ___जब महाराज उपश्रेणिकने अपना समस्त वृत्तांत सुनादिया तो उन्होने राजा यमदंडसे भी पूछा कि हे भाई तुम कोन हो ? और कैसे तुम्हारा यहां आना हुवा? और तुम्हारी क्या जाति है ?
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