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(२०७ ) यदि वे मेरे सच्चे गुरु हैं तो कदापि उन्होंने अपने गलेसे सर्प न निकाला होगा । कृपानाथ ! अचल भी मेरुपर्वत कदाचित् चलायमान होजाय । मर्यादाका नहीं त्यागीभी समुद्र अपनो मर्यादा बेडदे । किंतु जब दिगंबर मुनि ध्यानकतान होजाते हैं। उससमय उनपर घोरतममी उपसर्ग क्यों न आजाय, कदापि अपने ध्यानसे विचलित नहीं होते। प्राणनाथ ! क्षमाभूषणसे भूषित दिगंबर मुनि अचल तो पृथ्वीके समान होते हैं। और समुद्र के समान गंभीर, वायुके समान निष्परिग्रह, अग्निके समान कर्म भस्म करनेवाले, आकाशके समान निलेप, जलके समान स्वच्छ चित्तके धारक, एवं मेघके समान परोपकारी होते हैं । प्रभो ! आप विश्वास स्क्खे जो गुरु परमज्ञानी परमध्यानी दृढवैरागी होंगे, वे ही मेर गुरु होंगे। किं तु इनसे विपरीत परीषहोंसे भय करनेवाले, अति परिग्रही, व्रत तप आदिसे शून्य, मधु मास मदिराके लोलुपी, एवं महापापी जो गुरु हैं सो मेरे गुरु नहीं । जीवनसर्वस्व ! ऐसे गुरु आपके ही हैं। न जाने जो परम परीक्षक एवं अपनी आत्माके हितैषी हैं। वे कैसे इन गुरुओंको मानते हैं ? ---उनकी | पूजा प्रतिष्ठा करते हैं? । रानीके ऐसे युक्तिपूर्ण वचन सुन राजाका | चित्त मारे भयके कपगया ! उससमय । आर कुछ न कहकर उनके मुखसे येही शब्द निकले
प्रिये! इससमय जो आपने कहा है विलकुल सत्य कहा है।
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