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( ३२८ ) तेरा मन अतिशय शुद्ध है । सात प्रकृतियोंके उपशमसे तेरे औपशमिक सम्यग्दर्शन था। अंतर्मुहूर्तमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाकर उन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे अब तेरे क्षायिक सम्यक्वकी प्राप्ति हो गई है। यह क्षायिक सम्यक्त्व निश्चल अविनाशी और उत्कृष्ट है। भव्योत्तम ! जिनेंद्रद्वारा प्रतिपादित, पूर्वापर विरोधरहित शास्त्रोद्वारा निरूपित निर्दोष सात तत्त्वोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा गया है। इस सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अतिशय दुर्लभ मानी गई है। संसाररूपी विषवृक्षके जलानेमें सम्यग्दर्शनके सिवाय कोई वस्तु समर्थ नहिं । सम्यग्दर्शनसे वढ़कर संसारमें कोई सुख भी नहिं और न कोई कर्म और तप है । देखो-सम्यग्दर्शनकी कृपासे समस्त सिद्धियां मिलती हैं। सम्यग्दर्शनकी ही कृपासे तीर्थंकरपना और स्वर्ग मिलता है एव संसारमें जितने सुख है वेभी सम्यग्दर्शनकी कृपासे बातकी बातमें प्राप्त हो जाते हैं। राजन् ! इस संम्यग्दर्शनकी कृपासे जीवोंके कुव्रत भी सुव्रत कहलाते हैं और उसके बिना योगियोंके सुव्रत भी कुव्रत हो जाते हैं । भव्योत्तम ! तू अब किसी बातका | भय मत करै । सम्यग्दर्शनकी कृपासे आगे उत्सर्पिणी कामें तू इसी भरतक्षेत्रमें पद्मनाभ नामका धारक तीर्थकर होगा। इसलिये तू आसन्न भव्य है । तू अब निर्भय हो । तूने तीर्थंकर प्रकृतिको कारण भावना भाली हैं। समस्त दोषरहित तूने सम्यग्दर्शन प्राप्त करलिया है। और विनयगुण तुझमें स्वभावसे
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