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प्रिय भव्य ! रात्रि में भोजन करने से पतंग, डांस, मांखी आदि जीवों का घात होता है इसलिये महापुरुषोंने रात्रिका भोजन अनेक पाप प्रदान करनेवाला हिंसामय, घृणित और अनेक दुर्गतियोंका देनेवाला कहा है । यह निश्चय समझो जो मनुष्य रात्रि में भोजन करते हैं वे नियमसे उल्लू वाघ हिरण सर्प वीछू होते हैं और रात्रि भोजियों को बिल्ली और मूसोंकी योनियोंमें घूमना पड़ता है । और सुन - जो मनुष्य रात्रिमें भोजन नहिं करते उन्हें अनेक सुख मिलते हैं । रातमें भोजन न करनेवालोंको न तो इस भव संबंधी कष्ट भोगना पड़ता है और न परभव संबंधी । इसलिये हे वि! मैं तुम्हें रात में भोजन न दूंगी। सवेरा होते ही भोजन दूंगी। जिनमतीकी ऐसी युक्तियुक्त वाणी सुनकर विप्रने शीघ्रही रात्रिभोजनका त्याग किया और सवेरे आनंदपूर्वक भोजनकर सम्यक्त्व गुणसे भूषित किसी जैन मनुष्य के साथ गंगास्नान के लिये चल दिया । मार्ग में चलते२ एक पीपलका वृक्ष, जो कि फलोंसे व्याप्त था लंबी शाखाओंका धारी, भांति भांति के पक्षियोंसे युक्त, और जिसके चौतर्फी बड़े २ पाषाणों के ढेर थे, दीख पड़ा । वृक्षको देखते ही ब्राह्मणका कंठ भक्ति से गद्गद हो गया । उसे देव जान शीघ्र ही उसने नमस्कार किया । गाढ मिथ्यात्व से मोहित हो शीघ्र ही उसकी तीन परिक्रमा दी और वार२ उसकी स्तुति करने लगा । विप्र रुद्रदत्तकी ऐसी चेष्टा देख और उसे प्रबल मिथ्यामती समझ उसके बोधार्थ वह वणिक कहने लगा
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