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तीनों लोकमें यशस्वी अतिशय संतुष्ट जैनधर्मके माराषक नीतिपूर्वक प्रजाके पालक महाराज आनंदपूर्वक राजगृहीमें रहने लगे । उनका पुत्र वारिषेण अतिशय बुद्धिमान, मनोहर, जैनधर्ममें रति करनेवाला, एवं व्रतरूपी भूषण से मूषित था । कदाचित् राजकुमार वारिषेणने चतुर्दशीका उपवास किया । इधर यह तो रात्रिमें किसी वनमें जाकर कायोत्सर्ग धारण कर ध्यान करने लगा और उधर किसी वेश्याने सेठि श्रीकीर्तिकी सेठानी के गलेमें पड़ा अतिशय देदीप्यमान सुंदर हार देखा और हार देखते ही वह विचारने लगी-
इस दिव्य हारके विना संसार में मेरा जीवन विफल तथा ऐसा विचार शीघ्रही उदास हो अपने शयनागार में खाट पर गिर पड़ी । एक विद्युत नामका चोर जो उसका आशक था रात्रिमें वेश्या के पास आया । उसने कईवार वेश्यासे वचनालाप करना चाहा वेश्याने जवाब तक न दिया किंतु जब वह चोर विशेष अनुनय करने लगा तो वह कहने लगी——
प्रिय वल्लभ ! मैंने सेठि श्रीकीर्तिकी सेठानी के गले में हार देखा है । मैं उसै चाहती हूं । यदि मुझे हार न मिला तो मेरा जीवन निष्फल है और तुम्हारे साथ दोस्ती भी किसी कामकी नहिं । वेश्या की ऐसी रुखी वात सुन
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