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( ३५३) आया । तथा महाराजसे अभयदानकी प्रार्थना कर और अपना स्वरुप प्रकट कर जो कुछ सच्चा हाल था सारा कह सुनाया । जब महाराजने चोरके मुखसे सब समाचार सुनलिया तो उन्होंने कुमार वारिषेणसे घर चलनेके लिये कहा किंतु कुमारने कहा
पूज्यपिता ! मैं पाणिपात्रमें भोजन करुंगा-दिगंबर व्रत धारण करुंगा। यह व्रत मैंने लेलिया है अब मैं घर जा नहि सकता । महाराज आदिने दीक्षासे कुमारको बहुत रोका किंत उन्होंने एक न मानी । वे सीधे सूर्यदेव मुनिराजके पास चलेगये और केशलंचन कर दीक्षा धारण करली । एवं अष्ट अंग सहित सम्यग्दर्शनके धारक बड़े २ देवोंद्वारा पूजित वारिषेणमुनि तेरह प्रकारके चारित्र का पालन करने लगे। वारिषेण मुनिराजके व्रतरहित पुष्पलाड आदि अनेक शिष्य थे उन्हें उपदेश शुभाचार और चातुर्यसे सन्मार्गमें प्रतिष्ठित किया। बहुतकाल पर्यंत भूमंडलपर विहार किया । अनेक जीवोंको संबोधा । आयुके अंतमें रत्नत्रययुक्त हो सन्यास धारण किया भलेप्रकार आराधना आराषीं । एवं समाधिपूर्वक अपना प्राण त्यागकर मुनिवारिषेणका जीव अनेक देवियोंसे व्याप्त महान ऋद्धिका धारक देव हो गया ।
किसीसमय धर्मसेवनार्थ चिंताविनाशार्थ और सुख| पूर्वक स्थितिके लिये पूर्वजन्म के मोहसे महाराजने समस्त
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